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निरयावलिका
( २५५)
[वर्ग-चतुर्थ
कुल समुदाणिस्स भिक्खायरियाए गहेषु सुदानं भिक्षाटनं गृह समुदानं भक्षं तद्धि भिक्षटनम्3 र्थात् साधु को उच्च, नीच, मध्यम, अमीर, गरीब सभी के यहाँ बिना कुन पूछे जाना चाहिए।
सिंघाडए पद से साध्वीसंधाटक का अर्थ है कि भिक्षा के लिए कम से कम दो साध्वियां अवश्य जाए, जैसे सूत्रकृतांग सूत्र में षट् साधुओं के तीन सिंघाट क माने गए हैं।
यद्यपि संतान प्राप्ति पूर्व कर्मों के पुण्य से उत्पन्न होती है, फिर भी सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय स्कन्ध में गम्भाकरे अर्थात् गर्भ धारण विद्या का उल्लेख है, जिसके द्वारा गर्भ धारण किया जा सकता था। सत्तट्ठपयाइं-इस सूत्र से गुरु-भक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है।
उत्थानिका-तब उन साध्वियों के सिंघाडे ने क्या उत्तर दिया, उस उत्तर के सुझाव से जो
सुभद्रा सार्थवाही के मन में परिवर्तन हुआ उसी का वर्णन सूत्रकार आगे
करते हैं। मूल-तएणं तओ अज्जाओ सुभदं सत्थवाहिं एवं वयासो-अम्हे में देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंधीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारीओ नो खलु कप्पइ अम्हं एयमद्रं कर्णेहि वि णि सामित्तए; किमग ! पुण उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा, अम्हे णं देवाणुप्पिये ! णवरं तव विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेमो ॥५॥
छाया-ततः खलु ता आयिकाः सुभद्रा सार्थवाहीमेवमवादिषुः–वयं खलु देवानप्रिये ! श्रमण्यो निर्गन्थिण्यः ई-समिता यावत् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पते अस्माकम् एतमर्थ कर्णाभ्यामपि निशामयितु किमङ्ग! पुनरुपदेष्टुवा समाचरितुवा, वयं खलु देवानुप्रिये ! नवरं तव विचित्रं केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयामः ।।५।।
पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, ताओ अज्जाओ-वे आर्याए, सुभई सत्थवाहि-सुभद्रासार्थवाही से, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगीं, अम्हे णं देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये हम, समणीओ निगयोओ-श्रमणी हैं निर्ग्रन्थनी है, इरियासमियाओ-इर्या-समिति की पालन करने वाली है, जाब गुत्तबंभयारीमो-यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं, नो खलु कप्पइ-नहीं कल्पता, अम्हं-हमें, एयमढें-इस प्रकार की बात, कणेहि वि णिसामित्तए-कानों से सुनना भी, किमंग पुण-तब फिर, उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा-उपदेश करने के लिये और आचरण