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निरयापलिका
( २३५ )
(वर्ग-ततीय
प्रोक्षक तापस बन कर जहां अशोक नामक वृक्ष या बहां पहुंचे, उवागच्छित्ता-वहां पहुंच कर, किाढणसंकाइयं जाव-अपनी कांवड़ रख कर अपने सभी धर्म-कृत्य किये, तुसिणीए सचिटुइ -(मेरे द्वारा प्रतिबोध देने पर भी उसे अनसुना करके) तुम चुप-चाप बैठे रहे, तएणं-तत्पश्चात्, पुवरत्ताघरत काले- इस प्रकार चार बार अर्धरात्रि के समय, तव अन्तियं पाउभवामि-तुम्हारे सामने आकर प्रकट हुआ, (और तुम्हें समझाया कि), हं भो सोमिला-हे प्रब्रजित सोमिल, दुप्पच्वइयं ते-तुम्हारी यह प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है, तह चेव देवो नियवयणं भणइ जाव- पुन: उस देवता ने अपने वचन दोहराते हए उससे कहा, पंचम दिवसम्मि-आज पांचवें दिन, पच्छावरण्ह. काल-समयंसि-सायंकाल के समय, . जेणेव उंबरवरपायवे-जहां यह उदुम्बर वृक्ष था, तेणेव उवागए-वहां पर भी आ पहुचा हूं, किढिण संकाइयं ठवेसि-यहां तुमने अपनी कांवड़ रखी, वेई बड्डेस-वेदी बनाई, उवलेवणं संमज्जणं करेसि-उसे गोबर आदि से लीपा, संमार्जन किया, करित्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेसि-काष्ठ-मुद्रा से तुमने अपना मुंह बांधा, बंधित्ता-(और) बांधकर, तसिणीए-मौन धारण करके, संचिटुसि-बैठ गए हो, तं चेव खलु देवाणुप्पिया-(किन्तु हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार निश्चय ही, तव पव्वइयं-तुम्हारी यह प्रवज्या, दुप्पव्वइया- दुष्प्रव्रज्या
है ॥१८॥
___मूलार्थ - तदनन्तर वह देवता सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय (पहले तुमने) सर्व-जन-सेव्य भगवान श्री पार्श्वनाथ जी से पांच महाव्रतों और सात शिक्षा ब्रतों इस प्रकार बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार किया था। फिर कुछ समय बाद असाधु-दर्शन (सम्पर्क) के कारण अर्धरात्रि के समय अपने कुटुम्ब की . चिन्ता करते हुए तुमने सोचा कि मैं दिशा-प्रोक्षक वानप्रस्थ बन जाऊं। इस प्रकार तुम दुष्प्रव्रज्या के मार्ग पर चलते हुए दिशा-प्रोक्षक बानप्रस्थ बन गए । उस देव ने उसने फिर कहा-फिर तुम चलते-चलते जहां एक अशोक वृक्ष था वहां पहुंचे और वहां आकर तुमने अपनी कावड़ रख कर वे कृत्य किए जिन्हें तुम धर्म मानते थे । धर्मकृत्य करके मौन धारण करके बैठ गए। तब एक दिन मैं पुनः अर्धरात्रि के समय तुम्हारे सामने प्रकट हुआ और तुम्हें सावधान करते हुए कहा "हे सोमिल-इस प्रकार तुम्हारी प्रवज्या दुष्प्रवज्या है। देव ने उसे फिर से अपने वचन कहे कि आज पुनः पांचवें दिन सायंकाल के समय जहाँ उदुम्बर का वृक्ष है तुम वहां पहुंचे और उसके नीचे आकर अपनी कांवड़ रखी, वेदिका बनाई और उसे गोबर आदि से लीपकर वहां जल छिड़का और जल आदि सींच कर काष्ठ-मुद्रा से अपना मुंह बांध कर बैठ गए,