SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग-प्रथम ] (५२) [ निरयावलिका टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक ने महारानी चेलना देवी से एक बार पूछा तो वह मौन रही, दूसरी तीसरी बार पूछने पर भी उसने अपना मौन नहीं तोड़ा। इस घटना के द्वाग यह संकेत किया जा रहा है कि जैसे राजा श्रेणिक अपनी पत्नी के कष्ट को देख कर आतुर हो रहा था ऐसे ही प्रत्येक पति को अपनी पत्नी के कष्ट निवारण के लिये आतुर होकर कष्ट निवृत्ति का उपाय करना चाहिये। रानी चेलना के मौन रहने से यह भी ध्वनित होता है कि उसके मनोजगत में कहीं न कहीं पति के प्रति श्रद्धा छिपी हुई है, प्रेम छिपा हुआ है जिसके कारण वह पति के कलेजे का मांस खाने की बात नहीं कह पा रही थी। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। ज्ञाता धर्म-कथा में महारानी धारणी के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार वर्णन प्राप्त होता है । उत्थानिका-अब सूत्रकार पुनः इसी विषय में कहते हैं मूल-तए णं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी सेणियं रायं एवं बयासी-पत्थि णं सामी ! से केइ अढे जस्स णं तुन्भे अणरिहा सवणयाए, नो चेव णं इमस्स अट्ठस्स सवणयाए, एवं खलु सामी ! ममं तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-"धन्नाणं ताओ अम्मयाओ जाओ णं णियस्स रन्नो उदरवलिमंसेहि सोल्लएहि य जाव दोहलं विणेति ।" तए णं अहं सामी ! तंसि दोहलंसि अविणिज्ज माणंसि सुक्का भुक्खा जाव झियायामि ॥३२॥ . __छाया-ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा द्वितीयमपि तृतीयमपि (वार) एदमुक्ता सती श्रोणिकं राजानं एवं अवादोत्-"नास्ति खलु स्वामिन् ! सः कोऽप्यर्थः यस्य खलु यूयमनहः श्रवणताय, नो चेव खलु अस्यार्थस्य श्रवणताये एवं खलु स्वामिन् । मम तस्य उदारस्य यावत् महास्वप्नस्य त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतद्पो दोहदः प्रादुर्भूतः-"धन्याः खलु ताः अम्बा याः खलु निजस्य राज्ञः उदरवलिमांसः शूलकैश्च यावत् दोहदं विनयन्ति । ततः खलु अहं स्वामिन् ! तस्मिन्दोहदे अविनीयमाने शुष्का बुभुक्षिता यावत् ध्याये ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-तए णं-तदनन्तर, सा-वह, चेल्लणा देवी-चेलना देवी, सेणिएणं रन्नाराजा श्रेणिक के द्वारा, दोच्चं पि-तच्चं पि-दो बार-तीन बार, एवं वुत्ता समाणी-इस प्रकार बुलाई जाने पर अथवा इस प्रकार राजा द्वारा कहने पर, सेणियं रायं एवं वयासी-राजा श्रेणिक
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy