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________________ निरयावलिका ] ( ५१ । [ वर्ग-प्रथम पदार्थान्वयः-ततः खलु-उसके बाद अर्थात् राजा श्रेणिक के पूछने पर, सा चेल्लणा देवीउस महारानी चेलना ने, सेगियरस रन्नो-राजा श्रेणिक के, एतमर्थ-किए गए प्रश्न का, णो आढाइ-कोई आदर नहीं किया, णो परिजाणह-न उसे स्वीकार ही किया-मानो उस सम्बन्ध में वह कुछ जानती ही न हो, तुसिणीया संचिट्ठइ-वह चुप चाप मौन धारण करके बैठी रही ।।३०।। - मूलार्थ--तत्पश्चात् राजा श्रेणिक के पूछने पर महारानी चेलना ने राजा के प्रश्न का कोई आदर नहीं किया, अर्थात् प्रश्न को सुनकर भी अनसुना कर दिया, मानो वह कुछ जानतो ही न हो, अपितु वह मोन धारण करके ज्यों की त्यों बैठी रही ॥३०॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र द्वारा एक मनोवैज्ञानिक तथ्य पर प्रकाश डाला गया है। पति और पत्नी के सम्बन्ध प्रेम और विश्वास के आधार पर टिके होते हैं, अतः पत्नी पति की प्रत्येक बात को आदरपूर्वक स्वीकार करे। पूछने पर दोनों तत्काल उत्तर दें। किन्तु स्त्रियों में प्रायः मान-मनौवल करवाने की आदत होती है, उसी आदत के अनुसार महारानी चेलना ने भी राजा श्रेणिक के साथ एक मानिनी स्त्री जैसा व्यवहार किया। मूल-तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देवी दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी--कि णं अहं देवाणुप्पिए ! एयमट्ठस्स नो अरिहे सवणयाए जं णं तुमं एयमझें रहस्सीकरेसि ? ॥३१॥ ... छाया-ततः खलु श्रेणिको राजा चेल्लनां देवीं द्वितीयमपि तृतीयमपि (वार) एवमवादीत्कि खलु अहं देवानुप्रिये ! एतदर्थस्य नो अर्हः श्रवणाय यत्खलु त्वं एतमर्थ रहस्यीकरोषि ? ॥३१॥ ‘पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, से सेणिए राया-उस राजा श्रेणिक ने, चेल्लणं देवोंमहारानी चेलना से, दोच्चं पि-दूसरी वार, तच्चं पि-फिर तीसरी बार, एवं क्यासी-इस प्रकार कहा-, कि णं अहं-किस कारण से मैं निश्चय ही, देवाणुप्पिए-देवानुप्रिये, एयमट्ठस्सतुम्हारे इस अर्थ को-तुम्हारे इस प्रकार न बोलने के कारण को, नो अरिहे सवणयाए-मैं सुनने के योग्य नहीं हूं, जंणं तुमं-जो कि तुम, एयम;-इस बात को मुझ से, रहस्सोकरेसिछिपा रही हो ॥३१॥ . मूलार्थ-तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने महारानी से दूसरी बार और फिर तोसरी बार भी पूछते हुए इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! किस कारण से मैं निश्चय ही तुम्हारे इस प्रकार न बोलने के कारण को जानने के अयोग्य हूँ ? जो कि तुम मुझ से इस प्रकार छिपाव कर रही हो?
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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