SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग-प्रथम ] (५०) [निराबलिवा छाया-ततः खलु सः श्रोणिको राजा तासामङ्गपरिचारिकाणामन्तिके एतकथं श्रुत्वा, निशम्य तथैव सभ्रान्तः सन् यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीं शुष्कां बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्तों दृष्ट्वा एवमवादोत्-किं खलु त्वं देवानुप्रिये ! शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायसि ? पदार्थान्वयः-ततः खलु-तत्पश्चात्, से सेणिए राया-वह राजा श्रेणिक, तासि अंगपरियारियाणं अंतिए-उन अंग-परिचारिकाओं के पास से, एयमलैं सोच्चा-इस बात को सुनकर, निसम्म-कुछ विचार कर, तहेव-उसी समय, संभंते समाणे-आश्चर्यचकित होते हुए, जेणेव चेल्लणा देवी-जहां पर रानी चेलना देवी थी, तेणेव-वहीं पर, उवागच्छइ-आ गया, (और) उवागच्छित्ता-वहां प्राकर, चेल्लणं देवि-चेलना देवी को, सुक्क भुक्खं-सूखी सी (क्षीणकाय) एवं भूख से पीड़ित हो कर, झियायमाणि-आर्तध्यान करती हुई को, पासित्ता-देखकर, एवं वयासो-इस प्रकार बोला-किन्नं तुम-क्यों तुम, देवाणुप्पिये! हे देवानुप्रिये !, सुक्का भुक्खा--- शरीर को सुखा कर और भूखी रह कर, जाव यावत्-पूर्व वर्णित प्रकार से, झियायसी-चिन्ताग्रस्त होकर कुछ सोच रही हो ? ।।२६।। मूलार्थ तत्पश्चात् वह राजा श्रेणिक उन अंग - परिचारिकाओं (दासियों) के मुख से रानी चेलणा की दशा सुनकर और कुछ विचार कर उसी समय कुछ आश्चर्यचकित होते हुए जहां पर महारानी चेलना देवी थी वहीं आ गया और वहां आकर चेलना देवी को कृशकाय और भूख से पीड़ित होकर आर्तध्यान करती हुई,अर्थात् चिन्ताग्रस्त होकर कुछ सोचती हुई देखा और उसे देख कर बोले-“हे देवानुप्रिये.! इस प्रकार अपने शरीर को सुखा कर और भूखी रह कर तुम क्यों चिन्तातुर होकर कुछ सोच रही हो ? ॥२९॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थावस्था में पति के कर्तव्य की ओर ध्यान दिलाया गया है कि अपनी पत्नी के कष्ट की बात सुनते ही उसे उसके पास जाकर उसकी चिन्तातुरता का कारण जानना चाहिये। "देवानुप्रिये !” इस सम्बोधन से राजा श्रेणिक की पत्नी के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई ।जो गृहस्थ जीवन में आवश्यक होती है ।।२६।। मूल-तएणं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रन्नो एयमढें को आढाइ, णो परिजागइ, तुसिकीया संचिठ्ठइ ॥३०॥ छाया-ततः खलु सा चेलना देवो श्रेणिकस्य राज्ञः एतमर्थ नो आद्रियते, नो परिजानाति तूष्णीका संतिष्ठति ॥३०॥
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy