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________________ वर्ग-प्रथम ] (११२) [निरयावलिका अपने नाना चेटक राजा की शरण ग्रहण करता हुआ विचरता है । मुझे निश्चय ही अब यही उचित है कि सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार को प्राप्त करने के लिए दूत भेजना चाहिए। (वह कोणिक) ऐसा विचार करता है, विचार करने के बाद दूत को बुला कर इस प्रकार आज्ञा देता है- "हे देवानुप्रिय ! तुम बैशाली नगरी में जाओ, वहां मेरे नाना आर्य चेटक को दोनो हाथ जोड़ कर वधाई देते हुए, इस प्रकार कहना "निश्चय ही कूणिक राजा प्रार्थना करता है कि वेहल्ल कुमार कोणिक राजा को बिना सूचित किये सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाले वक्र हार को ग्रहण करके, शीघ्र ही यहां आगया है । हे स्वामी ! आप कूणिक राजा पर अनुग्रह करते हुए से चनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार. राजा कूणिक को वापिस लौटा दें। (इसके साथ) वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दें॥६५॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा अपने नाना राजा चेटक के पास दूत भेजने का वर्णन है । प्राचीन काल से ही दूत का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । राज कोणिक दूत को बुलाकर समझाता है कि तुम मेरे नाना चेटक के यहां वैशाली जाओ। उनसे विनयपूर्वक सेचनक गन्धहस्ती, अठारह लड़ियों वाला रत्न हार और वेहल्ल कुमार की मांग करो। सूत्रकर्ता ने यहां करयल बद्धावेत्ता पद-प्रयुक्त किया है। यह समग्र सूत्र इस प्रकार जानना चाहिये करयल परिग्गहिया दुसनहं सरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु नएणं विजएणं वद्धावेइ बढावेइत्ता एवं वयासी-प्रर्थात् शिरसा मस्तकेन प्राप्तम्-स्पष्टं शिरसि वा आवर्तः इति शिरस्यावर्तोऽतस्य । जएणं विणएणं वद्धावेति त्ति जयः-सामण्यो विनयादि विषयो विजयः-स एव विशिष्टतरः प्रचण्ड प्रतिपन्थादि विषयः वर्धयति जयते विजयते च बर्द्धस्व स्वमितमित्येवमाशिषं प्रयुक्तेस्मत्वर्थ:-इसका भाव इस प्रकार है कि दोनों हाथ करवद्ध कर शिर से स्पर्श न करता हआ, आवर्तन के साथ जय विजय के शब्दों से वधाई देता। है। क्योंकि जय शब्द सामान्य विघ्नों का नाश करने के अर्थ में आता है। विजय प्रचण्ड शत्रुओं पर विजय के स्वर में कहता है । अर्थात् हे स्वामी ! आपकी जय-विजय में बढ़ावा हो, यह आशीर्वचन है। अणुगिण्हयाणं का अर्थ विनयपूर्वक है। भसंविदितेन का अर्थ विनय-पूर्वक सूचना है ॥६५॥ - मूल-तए णं से दूए कणिएणं० करतला जाव पडिसणित्ता जेणेव सए गिहे तेगेव उवागच्छद, उवामच्छिता जहा चित्तो नाव बद्धाबित्ता
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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