________________
निरयावलिका)
(११३)
[वर्ग-प्रथम
+
+
+
+
+
एवं वयासी-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विन्ननेइ-एस णं नेहल्ले कुमारे तहेव भाणियां जाव वेहल्लं कुमारं च पेसेह ॥६६॥
छाया-तता खलु स दूनः कूणिकेन० करतल० यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यथा चित्तो यावद वर्द्धयित्वा एवमवादीत एवं खल स्वामिन ! कणिको राजा विज्ञापयति-एवं खलु वेहल्लः कुमारस्तथैव भणितव्यं यावद् वेहल्लं कुमारं प्रेषयत ॥६६।।
___ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से दूए-वह दूत, कूणिएणं करयल जाव पडिसुणित्ताकोणिक राजा के समीप दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसके कथन को सुन कर, जेणेव सए गहे--जहां उसका अपना निवास था, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता-वहां पर आया और आकर यावत्, जहा चित्तो-जैसे चित सारथी ने किया था, जाव-यावत्, बद्धावित्ता-वधाई देकर, एवं वयासोइस प्रकार बोला, एवं खलु सामी-इस प्रकार निश्चय हो हे स्वामी, कोणिए राया विन्मवेइ-राजा कोणिक निवेदन करता है, एस णं वेहल्ले कुमारे-यह वेहल्ल कुमार के सम्बन्ध में, तहेव भाणियव्वंइस प्रकार से कहना, जाव-यावत्, वेहल्लं कुमारं पेसह-वेहल्ल कुमार को (मेरे पास) भेज दे।
मूलार्थ-तत्पश्चात् वह दूत कोणिक राजा के समीप दोनों हाथ जोड़ कर यावत् उस (कोणिक) के कथन को सुनता है और सुनकर, जहां उसका गृह था, वहां आता है। वहां से चल कर चित सारथी की तरह, (वैशाली पहुंचा और वहां) वधाई देकर (वैशाली नरेश राजा चेटक से) इस प्रकार बोला-"हे स्वामी निश्चय ही राजा कोणिक (मेरे स्वामी) ने निवेदन किया है कि आप वेहल्ल कुमार को यावत् सेचनक हाथी, अठारह लड़ियों वाला हार वापिस भेज दो ॥६६॥
टोका-तब दूत ने कोणिक राजा की बात ध्यान से सुनी तो दूत तैयार होकर, चित सारथी की तरह वैशाली नगरी में राजा चेटक के दरबार में पहुंचा। दूत ने राजा कोणिक के मन की इच्छा महाराजा चेटक को बताई। सारथी के लिये "महा चित्तो" पद आया है वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है।
'जहाचित्तो' ति राजप्रश्नीये द्वितीयोपाङ्ग यथा श्वेताम्बी नगर्याश्चितो ना दूतः प्रदेशिराज्ञा प्रेषितः, श्रावस्त्यां नगाँ जितशत्रु समीपे स्वगृहानिर्गत्य गतः तथाऽयमपि । कोणिक नामको राजा यथा एवं विहल्ल कुमारोऽपि ।
अर्थात् जैसे राय प्रश्नीय उपांग में राजा प्रदेशी द्वारा श्वेताम्विका नगरी से जितशत्रु के पास