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________________ वर्ग-प्रथम (११८) [निरयावलिका न देइ णं सामी ! चेडए राया सेयणग गन्धहत्थि अट्ठारसबक हारं च वेहल्लं न पेसेइ । दूत द्वारा प्रयुक्त रथ के. वारे में टीकाकार का कथन है। 'चाग्घंट' त्ति चतस्रो घण्टाश्चतसृष्वपि दिक्षु अवलम्बिता यस्य त चतुर्घण्टो रथः। दूत के सफर के बारे में वृत्तिकार ने कहा है सुभेहि वसहोहिं पायरासेहि, ति प्रातराशः आदित्योदयादेवाद्यप्रहरद्वयसमयवर्ती भोजनकालः निवाराश्च-निर्वसनभमागः तो द्वावपि सखडेतको न पीडाकारिणौ-अर्थात उसका सारा सफर मानंदमय रहा सुबह का भोजन दूत ने सुखपूर्वक किया। भोजन करने के पश्चात् वह कोणिक से मिला। दूत का सन्देश कोणिक राजा की इच्छा के सर्वथा प्रतिकूल था ॥६॥ उत्थानिका-तब राजा कोणिक ने फिर क्या किया, अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं मूल-तएणं से कूणिए राया दुच्चं पि दूयं सद्दावित्ता एवंवयासीगच्छह णं तमं देवाणुप्पिया ! वेसालि नरि, तत्थ णं तमं मम अज्जगं चेडगं रायं जाव एवं वदाहि-एवं खलु सामी !.कूणिए राया विनवेइजाणि काणि रयणाणि समप्पज्जति सव्वाणि ताणि रायकुलगामीणि, सेणियस्स रन्नो रज्जसिरि करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, तं जहा-सेयणए गंधहत्थी, अट्ठारसबंके हारे, तण्णं तब्भे सामी ! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठार सबंक हारं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणह, वेहल्लं कुमार पेसेह। ___तएणं से दूए कूणियस्स रन्नो तहेव जाव वद्धावित्ता एवं वयासोएवं खलु सामी ! कूणिए राया विन्नवेई - जाणि काणित्ति जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह ॥६६॥ छाया-ततः खल स कूणिको ताजा द्वितीयमपि दूतं शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिय ! वैशाली नगरौं, तत्र खलु त्वं मम आर्यक चेटकं राजानं यावत् एवं वद-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञापयति-यानि कानि रत्नानि समुत्पद्यन्ते सर्वाणि तानि राजकुलगामीनि, श्रेणिकस्य राज्ञो राज्यश्रियं कुर्वतः पालयतो द्वे रत्ने समुत्पन्ने, तद्यथा-सेचनको गन्धहस्ती, अष्टादशवको हारः,
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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