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वर्ग-चतुर्थ
( २४५)
[निरयालिका
__ हे जम्बू ! भगवान ने इस अध्ययन का अर्थ इस प्रकार कहा है-"उस काल, उस समय में राजगृही नगरी थी, वहां गुणशील चैत्य था, बहां राजा श्रेणिक राज्य करता था। उस नगर में स्वामी (भगवान महावीर) पधारे । परिषद धर्मदे-शना सुनने आई ।
उस काल. उस समय में बहुपत्रिका देवी सौधर्म कल्प के बहुपुत्रिका विमान की, सुधर्म सभा में बहुपुत्रिका सिंहासन पर विराजित हुई । चार हजार सामानिक देवियों
और चार हजार महत्तरिकाओं के साथ; सूर्याभ देव की तरह भोग-उपभोग करती विचर रही थी।
वह अपने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विशाल अवधि-ज्ञान द्वारा (उपयोग लगाकर) देख रही थी। उसने अपने ज्ञान के बल से श्रमण भगवान महावीर को देखा। जैसे सूर्याभदेव ने देखा था। बहुपुत्रिकादेवी ने सात आठ कदम आगे आकर (श्रमण भगवान महावीर के चरणों में) नमस्कार किया और वह अपने सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठ गई। सूर्याभ देव की तरह आभियोगिक देव को उसने बुलवाया और उसने आकर सुस्वर नामक घंटा बजाकर आभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर एक हजार योजन विस्तार वाला और साढ़े बासठ योजन ऊंचा विमान बनाने की आज्ञा दी । यह वर्णन सूर्याभ देव की तरह जान लेना चाहिए।
वह उत्तर दिशा की ओर जाने वाले मार्ग से हजार योजन का शरीर धारण ' कर श्रमण भगवान महावीर के समीप आई। जैसे सूर्याभ देव आया था। इस प्रकार
धर्मकथा समाप्त हुई, अर्थात् जनता ने धर्म-कथा सुनने के बाद सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को ग्रहण किया ॥१॥
टोका-प्रस्तुत सूत्र में बहुपुत्रिका देवी के प्रभु महावीर के दर्शनार्थ समोसरण में आने का वर्णन सूर्याभदेव कुमार की तरह है। बहुपुत्रिका देवी ने भी अपने सामानिक देवों को हजार योजन लम्बा वासठ योजन ऊंचा विमान बनाने की आज्ञा दी। फिर देवी अपने विमान में देव परिवार से युक्त होकर आई।
यहां 'उक्खेवओ' पद का अर्थ प्रारम्भ का वाक्य है जो पुष्पिका नामक सूत्र के चौथे अध्ययन में आया है । चउहि सामाणिय साहस्सोहि-पद से सिद्ध होता है देवियों का स्व शासन होने पर भी उनके मन्त्री रूप सामानिक देव भी होते हैं।