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निरयावलिका]
( २४४)
[ वर्ग-चतुर्थ
इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन्ती आभोगयन्ती पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीर यथासूर्याभो यावद् नमंस्थित्वा सिंहासनवरे पौरस्त्याऽभिमुखी संनिषण्णा । अभियोगा यथा सूर्याभस्य सुस्वरा घण्टा आभियोगिक देवं शब्दयति यानविमान योजनसहस्रविस्तीर्ण, यानविमानवर्णकः, यावत् उत्तरोयेण निर्याणमार्गेण योजनसाहसिकः विग्रहैरागता यथा सूर्याभः । धर्मकथा समाप्ता ।।१।।
पदार्थान्वयः-जइ णं भंते–यदि हे भगवन्, उक्खेवओ-उत्क्षेपक, एवं-इस प्रकार, खलु जंबू-हे जम्बू, तेणं कालेणं, तेणं समएणं-उस काल, उस समय में, रायगिहे नयरे-राजगृह नगर में, गुणसिलए चेइए-गुणशील चैत्य था (वहां), सेणिए राया-राजा श्रेणिक था, सामी समोसढे-भगवान महावीर पधारे, परिसा निग्गया-परिषद् धर्मदेशना सुनने आई। तेणं कालेण; तेणं समयेणं-उस काल उस समय में, बहपुत्तिया देवी-बहुपुत्रिका देवी, सोहम्मे कप्पे-सौधर्म कल्प में, बहुपुत्तिए विमाणे-बहुपुत्रिका विमान की, सभाए सुहम्माए - सुधर्म सभा में, बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि-बहुपुत्रिका सिंहासन पर विराजित, चउहि सामाणियसाहस्सीहि-चार हजार सामानिक देवियों तथा, चउहि महत्तरियाहि-चार महत्तरिका देवियों के साथ, जहा सूरियाभे—सूर्याभ देव के समान, जाव-यावत्, भुजमाणी विहरइ –भोगोपभोगों को भोगतो हुई विचर रहो थी॥
इमं च णं-इस, केवलकप्पं-अपने गुणों से युक्त, जंबद्दीव-जम्बूद्वीप नामक, दीवदीप को, विउलेणं ओहिणा-अपने विशाल अवधि ज्ञान द्वारा, आभोएमाणी, आभोएमाणी पासइउपयोग लगा कर देख रही थी इस प्रकार, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान महावीर को देखा, जहा सूरियाभे-जैसे सूर्याभ देव ने, जाव-यावत्, णमसित्ता-सात आठ हाथ आगे होकर नमस्कार किया, सोहासणवरसि-फिर सिंहासन के ऊपर, पुरत्याभिमुहे -पूर्व की की ओर मुख करके, सन्नि सन्ना-बैठ गई, आभियोगा जहा सूरियाभस्स-सूर्याभदेव की तरह आभियोगिक देव ने जाना, सुसरा घंटा-सुस्वर नामक घंटा बजाया और आभिओगियं देवंअपने आभियोगिक देव को, सद्दावेइ-बुलाया, जोयणसहस्स विस्थिण्णं-हजार योजन के विस्तार का, जाण विमाणं-विमान बनाने की आज्ञा प्रदान की, जाणविमाणवण्णओ-यान विमान का वर्णन जान लेना, जाव-यावत्, उत्तरिल्लेणं निज्जाणमग्गेण-उत्तर की ओर जाने वाले मार्ग से, जोयणसाहस्सिएहि विग्गहेहि-एक हजार योजन का शरीर धारण करके, आगया-भगवान महावीर के समीप आई, जहा सूरियाभे-जैसे सूर्याभदेव, धम्मकहा समत्ता-धर्म-कथा समाप्त हुई ॥१॥
मूलार्थ-तीसरे अध्ययन का अर्थ सुनने के पश्चात् आर्य जम्बू अपने गुरु आर्य सुधर्मा से चौथे अध्ययन का अर्थ पूछते हैं। शिष्य की जिज्ञासा को शान्त करते हुए गुरु आर्य सुधर्मा कहते हैं :