SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय जैन धर्म में आचार्य का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। आज जब तीर्थङ्कर भगवान भरत क्षेत्र में विचरण नहीं कर रहे हैं उस स्थिति में आचार्य भगवान ही उनका प्रतिनिधित्व करते हुए समस्त श्री-संघ को सम्भाल रहे हैं। उस युग के सर्वप्रथम आचार्य सुधर्मा स्वामी थे, जिनके नाम से समस्त जैन सम्प्रदायों को पट्टावलियां प्रारम्भ होतो हैं। आचार्य श्री सुधर्मा स्वामी जी के शिष्य अन्तिम केवली श्री जम्बू स्वामी थे। श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य इन दो महापुरुषों द्वारा ही संकलित हो पाया है । आचार्य श्री सुधर्मा भगवान महावीर के ११ गणधरों में से एक थे। उनकी आयु भी पर्याप्त थी। उन्होंने जो अपने शास्ता अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के श्री-मुख से सुना वह उसी प्रकार अपने अन्तेवासी आचार्य जम्बू स्वामी को सुनाया। प्राचीन काल से ही जैन धर्म में आगमों की श्रुत-परम्परा रही है। आगमों के सम्पादन के लिये जैन श्रमणों ने अनेक प्रयत्न भी किये, पर आगमों को अन्तिम बार लिखने का कार्य वी. नि. संवत् ६९८ में ही आचार्य क्षमा-श्रमण देदघि गणि के नेतृत्व में गुजरात के वल्लभी नगर में सम्पन्न हुआ। उस समय समस्त श्रो-संघ को उपस्थिति में समस्त श्रमणों ने आगमों को पुस्तकों का रूप दिया। श्री संघ ने अनुभव किया कि दुर्भिक्ष एवं राजनैतिक उथल-पुथल के कारण श्रुत-ज्ञान का अधिकतर भाग विच्छिन्न हो चुका है। इसलिए शास्त्रों की रक्षा के लिए इन्हें ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया जाय । वर्तमान उपलब्ध आगम साहित्य उसी वाचना का परिणाम है। हमारे दिगम्बर भाई इस साहित्य को प्रामाणिक नहीं मानते । वे अपने आचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित साहित्य को आगम की तरह स्वीकारते हैं। पर मूल रूप से जैन सिद्धान्तों में कोई मुख्य अन्तर दोनों परम्पराओं में नहीं है। श्वेताम्बर जैन संघ के तीन रूप हैं-(१) स्थानकवासी (२) तेरहपंथी (३) मूर्ति-पूजक । पहले दो सम्प्रदाय ३२ आगमों को प्रामाणिक मानते हैं। उस टीका, भाष्य टब्बा को भी प्रामाणिक स्वीकार करते हैं, जो मूल आगमों के अनुसार हो । मूर्ति-पूजक भाई ४५ आगमों को मानते हैं, पर ११ अङ्ग और उपाङ्ग तीनों सम्प्रदायों को ही मान्य हैं। दिगम्बर भाई भी इनके नामों को स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि में इन शास्त्रों का पूर्ण विच्छेद हो चुका है। अनुवाद-परम्परा वर्तमान में इस उपाडके अन्तर्गत पांच उपाङ्गों का समावेश है। इनके कुल अध्ययन ५२ हैं। भाषा उस समय की अर्ष मागधी है। तीन तीर्थङ्करों के साधु - साध्वियों, राजा, [बारह ]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy