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वग - तृतीय ]
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[ कल्पावतसिका
वयाइं चिण्णाई - व्रतों का आचरण किया, जाव० - यावत्, जवा निक्खित्ता - यज्ञ-स्तम्भ स्थापित किये, तरणं एतत्पश्चात् वाणारसीए - वाराणसी नगर के बाहर, जाव० - यावत्, पुप्फारामा य जाव रोविया - पुष्पों फलों के बाग आदि लगवाए, तएणं - तत्पश्चात् मए - मैंने, सुबहु ० लोह घड़ा वित्ता-बहुत से लोहे के कड़ाहे कछियां आदि बनवा कर जाव० - यावत्, जेट्ठपुत्तं - अपने बड़े पुत्र को, कुटुम्बे ठाविता - कुटुम्ब का भार सौंप कर जाव० - यावत् जेठपुत्तं आपुच्छिता -बड़े पुत्र से पूछ कर सुबहु लोह० जाव० गहाय- बहुत से लोहे के भाण्डोपकरण ग्रहण कर, मुण्डे जाव पव्वइए-मुण्डित होकर प्रव्रजित हो गया, वि य णं समाणे- और प्रव्रजित हो जाने पर, छट्ट छट्टणं - षष्ठ भक्त उपवास तप करता हुआ, जाव विहरामि -- विचरण करता हूं । तं सेयं खलु -- अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है, मम इयाणि – कि मुझे अब,.. कल्लं पाउ- कल प्रातः काल ही, जाव जलन्ते – सूर्य के निकलने पर, बहवे तावसे- बहुत से तापसों को दिट्ठा भट्ट - जिन्हें मैंने आंखों से दूर होते देखा है, य पुव्वसंगइए - जो दीक्षा से पूर्व के मेरे मित्र हैं, य परियाय संगइए - एवं दीक्षा - काल से बाद भी मेरे मित्र रह चुके हैं, आपुच्छित्ता - उन सबसे पूछ कर आसम संसियाणि - और आश्रम में ठहरे हुए, य बहूहि-जो बहुत से, सत्त-सधाई - सैंकड़ों की तादाद में हैं, अणुमाणइत्ता- उन सबका आदर-सम्मान करके, वागलवत्थ नियत्थस्स - बल्कल वस्त्र धारण करके, किढिणसंकाइय गहिय-सभंडोवगरणस्स - अपनी वंहगी में रखे हुए अनेकविध भण्डोपकरण लेकर. कटुमद्दाए- काष्ठ की मुद्रा से, महं बंधित - मुख को बांध कर, उत्तर दिसाए - उत्तर दिशा में, उत्तराभिमहस्स - उत्तर दिशा
चलता रहूं । एवं कल्लं जाव जलते
की ओर मुख करके, महापत्थाणं पत्थवेत्तए - महापथ अर्थात् मृत्यु मार्ग पर संपेइ - इस प्रकार विचार करता है (और), संपेहित्ता विचार करके प्रातःकाल सूर्योदय होते ही, बहवे तावसे य-बहुत से तापसों को जिन्हें पहले दिट्टा-भट्ठे घआंखों से दूर हो चुके थे, पव्वसंगइए - जो पहले साथ-साथ रह चुके थे, तं चैव-उन सवको, जाव०-3 - जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है, क मुद्दाए मुहं बंधाई - काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है, बंधिता - प्रोर मुख को बांध कर अयमेयारूवं - इस प्रकार का, अभिग्ग अभिहिs - अभिग्रह धारण करता है. जत्थेव णं-जहां कहीं भी अहं - मैं, जलसि जल में, वा एवं थलंसि – अथवा शुष्क भूमि पर, वा दुग्गंसि - अथवा किसी भी दुर्गंम प्रदेश में. वा निनंसि - किसी निम्न स्थान पर, पठत्रयंसि वा- किसी पर्वत पर विसमंसि वा - विषम मार्ग पर गड्डुए वा- किसी गड्ढे में, दरीए वा - किसी पर्वत की दरार में वा - फिसल कर गिर जाऊं तो, नो खल में कप्पड़ पच्च टिठतए मेरे लिये वहां से उठना उचित न होगा तिकट - ऐसा निश्चय करके अयमेवारूबं - इस प्रकार का अभिग्गहं अभिगिण्हs - अभिग्रह धारण कर लेता है, अभिगिन्हित्ता - ऐसा अभिग्रह धारण करके, उत्तराए बिसाए- ' उत्तर दिशा में, उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पत्थिए — उत्तराभिमुख होकर महापथ ( मृत्यु - मार्ग) पर चल पड़ा, से सोमिले माह रिसी - वह सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि, पुव्वावरण्हकाल समयंसि -
पक्खलिज्ज वा पडविज्ज