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निरयावलिका)
(२२३)
[ वर्ग- तृतीय
. दिन के तीसरे प्रहर में, यत्रैव असोगवरपायवे - जहां पर अशोक नामक श्रेष्ठ वृक्ष था, तेणेण उवागए-वहीं पर आ गया. असोगवरपायवस्स अहे-उस सन्दर अशोक वक्ष के नीचे किटणासंकाइयं-अपनी बंहगी को, ठवेइ-रख देता है, ठवित्ता वेदि वड्ढइ-वेदिका बनवाता है, वढित्ता उवलेवण संज्च गं करेह-उपलेपन एवं संमार्जन करता है, करित्ता-और करके, दम-कलसहत्थ गए-दूब और कलश आदि हाथ में लेकर, जेणेव गंगा महानई-जहां गगा महानदी थी, जहा सिवो-और शिवराज ऋषि के समान, जाव०-यावत्, गंगाओ महानईओ-महानदी गंगा में, पच्चुत्तरइ - स्नानादि के लिये प्रवेश करता है, पच्चुत्तरित्ता-और प्रवेश करके, जेणेव असोगवरपायवे-जहां पर अशोक. नामक वृक्ष था, तेणेव उवागच्छइ-वहों पर आता है, उवागच्छित्ता-और वहां आकर, दहिं य कुसेहि य बालुयाए-दर्भ कुशा और बालुका से, वेदि रएइ-वेदिका की रचना करता है, रइत्ता सरगं करेइ-सरग और अरणि से अग्निमन्थन करता है, करिता जाव० बलिव इस्स देवं करेइ-और अग्नि मन्थन करके बलि वैश्वदेव करता है, करित्ता कट्ठमद्दाए मुहं बंधेइ-और फिर काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांधता है, तुसिणीए संचिटठड-और मौन धारण करके बैठ जाता है ॥११॥
मूलार्थ-तत्पश्चात उस लोमिल ब्राह्मण ऋषि के हृदय में एक बार अर्धरात्रि के समय अनित्यता का विचार उत्पन्न हुआ और वह जागने लगा, जागते हुए उसके मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक (आन्तरिक) संकल्प उत्पन्न हुआ, मैं वाराणसी नगरी में सोमिल नामक ब्राह्मण अत्यन्त महान कुल में उत्पन्न हुआ हूं। मैंने अनेक प्रकार के व्रतों का आचरण किया है और अनेक यज्ञ-स्तम्भ स्थापित किए हैं । तत्पश्चात् वाराणसी .नगरी के बाहर मैंने अनेक फूलों फलों आदि के वाग लगवाए हैं । और फिर मैंने बहुत से लोहे के कड़ाहे और कड़छिया आदि बनवाये और फिर अपने बड़े पुत्र को कुटुम्ब का भार सौप कर और उस ज्येष्ठ पुत्र से पूछ कर बहुत से लोहे आदि के भाण्डोपकरणों का निर्माण करवाया और स्वयं मुण्डित होकर प्रवजित हो गया। प्रवजित होकर षष्ठ-भक्त अर्थात् बेले-बेले तप करते हुए विचरण करने लगा। इसलिये अब मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि कल प्रात:काल सूर्योदय होते ही जो बहुत से तापस अब मेरी दृष्टि से ओझल हो चुके हैं, अथवा पहले मेरे संगी-साथी रह चुके हैं उन सबसे परामर्श करके तथा अपने आश्रम में रह रहे सैंकड़ों प्राणियों को सन्मानित करके बल्कलवस्त्र-धारी बनकर वंहगी में अनेक भाण्डोपकरणों को लेकर तथा काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर महापथ (मृत्यु