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बर्ग-तृतीय]
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[निरयावलिका
मार्ग में) प्रस्थान करूं। वह इस प्रकार विचार करता है और विचार करके दुसरे दिन सूर्योदय होने पर उन सब तापसों को जो उसकी नजरों से दूर हो चुके थे, जो पहले साथ-साथ रह चुके थे उनसे परामर्श करके काष्ठ मुद्रा से अपना मुंह बांधकर वह इस प्रकार का अभिग्रह धारण कर लेता है कि मैं जहां पर भी होऊंगा-जल में, थल में, किसी कठिन मार्ग में, किसी निम्न स्थान पर किसी पर्वत पर किसी विषम मार्ग में, किसी गड्ढे में, पर्वत की दरार में कहीं पर भी फिसल जाऊं अथवा गिर पडूं तो मेरे लिये यही उचित होगा कि मैं वहां से उठू नहीं। इस प्रकार वह ऐसा अभिग्रह धारण कर लेता है और अभिग्रह धारण करके उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महापथ अर्थात् मृत्यु-मार्ग पर चल पड़ता है। अब वह सोमिल ब्रह्मर्षि दिन के अन्तिम प्रहर में जहां पर एक उत्तम जाति का अशोक वृक्ष था वहीं पर आ पहुंचा और उस श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे उसने अपनी बंहगी रख दो और रख कर एक वेदिका बनाई, उस वेदिका में उपलेपण -संमार्जन किया और ऐसा करके हाथ में दूब और कलश लेकर जहां पर महानदी गंगा थी वहां शिव राज ऋषि के समान वह गंगा नदी में स्नानार्थ उतरा और उतर कर स्नानादि से निवृत्त हुआ और जहां अशोक वृक्ष था वहां पर आ गया । आकर दूब कुशा और बालुका से उसने वेदिका बनाई और बना कर सरक और अरणि से अग्नि-मन्थन किया तथा अग्नि-मन्थन करके बलिवैश्वदेव करता है, और फिर काष्ठ-मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है और मौन धारण करके बैठ जाता है ॥११॥
टीका-सूत्रकार के कुछ शब्द वृत्तिकार के मन में विचारणीय हैं-कट्ठमुद्दाए बंधित्ताकाष्ठमुद्रा मुंह पर मौनवृत्ति के चिन्ह के रूप में बांधी जाती थी। वृत्तिकार इस विषय में पुन। लिखते हैं-कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता-यथा काष्ठमयी पुत्तलिका न भाषते एवं सोऽपि मौनावलम्बी भविष्यति । यता मुरखन्ध्राच्छादकं काष्ठखण्डमुभयपाल छिद्रद्वय-प्रेषित दोरकान्वितं मुखबन्धनं, काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति-मुख-विवर के ढकने के लिये काष्ठ-खण्ड के दोनों ओर छिद्र किए और दोनों छिद्रों में धागा डाल कर मुख पर बांधा। इसी काष्ठ-खण्ड को "काष्ठमुद्रा" कहा जाता है।
महापत्थाणं पत्थावेत्तए-यह पद मृत्यु की अपेक्षा रखकर दिया गया है। वृत्तिकार ने इस संदर्भ में कथन किया है कि महाप्रस्थानं पदं इति मरण काल। ततः प्रस्थितः।