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________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२७५) [निरयावलिका M अवहेलना करने लगीं। वह निंदा एवं खीज करती हुई और उससे घृणा करने लगीं। बार बार सुभद्रा को रोकने पर भी वह इन सांसारिक कार्यों से न रुकी तब उस सुभद्रा आर्या के मन में इस प्रकार का सकल्प आया। जब मैं घर में थी तब स्वतन्त्र थी । जब से मैंने गृह-त्याग कर अनगार वृत्ति ग्रहण की है तब से मैं परतन्त्र हो गई हूं। पहले यह श्रमणियां निर्ग्रन्थ नियां मेरा आदर-सत्कार करती थीं अब नहीं करतीं ऐसी स्थिति में मुझे यही श्रेयस्कर है कि मैं सुव्रता आर्या के सान्निध्य को छोड़कर, पृथक् किसी उपाश्रय में जा रहूं, इस प्रकार विचार कर वह सूर्योदय होते ही पृथक उपाश्रय में जाकर रहने लगी। ___ तत्पश्चात् सुभद्रा आर्या अन्य आर्यकाओं के निषेध को न मानती हुई, उन क्रियाओं को न छोड़ती हुई स्वेच्छाचारिणी हो गई। वह बहुत से लोगों के बच्चों में मूछित यावत् ‘अभ्यंग आदि क्रिया करती हुई, पुत्र-पौत्रादि की पिपासा को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करती हुई विचरने लगी ॥१४।। - टोका-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जब सुव्रता आर्या ने सुभद्रा आर्या को अपना कर्तव्य पहचानते हुए साध्वी धर्म में स्थिर रहने का उपदेश दिया तो वह सुभद्रा नहीं मानी। वह साध्वियों को शिक्षा को बुरा समझने लगी। सुभद्रा के मन में से साध्वी-धर्म जैसे उड़ गया। वह . साध्वी-जीवन को परतन्त्रता का कारण मानने लगी। गृहस्थ जीवन उस को स्वतन्त्र जीवन लगने लगा। वह सोचने लगी कि मैं तो घर में ही अच्छी थी, स्वाधीन थी, ये साध्वियां भी पहले मेरा सन्मान-सत्कार करती थीं, पर अब जब मैं साध्वी बन गई हूं पराधीन हो गई हूं, मुझे सुव्रता आर्या का उपाश्रय छोड़ कर कल ही नये उपाश्रय में चले जाना चाहिये। ऐसा विचार कर सुभद्रा आर्या नये उपाश्रय में आ गई वहां लोगों के बच्चों के साथ पूर्व वणित क्रियाएं करने लगी। यहां यह भी बताया गया है कि जैन धर्म में जोर जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं है। प्रेरणा का स्थान है। वृत्तिकार ने कुछ महत्व पूर्ण शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है। - 'पाडियक्कं उबस्सयं उवसंपजित्ता णं विहरति' सा पृथक् विभिन्नमुपाश्रयं प्रतिपद्य विचरति आदि पद से सिद्ध होता है कि एकाकी विहार शिथिल व्यक्ति व उग्रविहारी ही कर सकता है, किन्तु वह सुभद्रा आर्या शिक्षा रहित होकर स्वच्छन्दमति होकर ये क्रियाएं कर रही थी। जिस समय शिक्षा अनुकूल नहीं लगती, तो अविनीत शिष्य, सुभद्रा आर्या की भांति सोचने लगता है और दूसरों में दोष निकलता है जैसे सुभद्रा आर्या कहती है। .
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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