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निरयावलिका]
(२७४)
[वर्ग-चतुर्थ
नामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकम् उपाश्रयम् उपसंपद्य खलु विहर्तुम्, एवं संप्रेक्षते, सप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति सुक्तानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्काम्यति, प्रतिनिष्कभ्य प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खल विहरति । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या आर्याभिः अनपघट्टिका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः बहुजनस्य चेटरूपेषु मूच्छिता यावत् अभ्यञ्जनं च यावत् नप्त्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति ।१४।
पदार्थान्बयः-तएणं-तत्पश्चात्, ताओ समणीओ निग्गंथीओ-उन श्रमणियों f ग्रन्थनियां, सुभदं अज्ज-सुभद्रा आर्या की, हीति-अवहेलना करती हैं, निदति-निंदा करती हैं, खिसतिउससे खीजती हैं, गरहंति-घृणा करती हैं और, अभिक्खणं अभिक्खण–बार-बार, एयमलैं-- इस बात को करने से, निवारेति-निवारण करती हैं, तएणं-तत्पश्चात्, तीसे सुभद्दाए अज्जाए-वह सुभद्रा आर्या को, समणीहि निग्गंथोहि-श्रमणियों निर्ग्रन्थनियों से इस प्रकार होलिज्जमाणीए जाव अभिक्खणं-अभिक्खणं एयमझें निवारिज्जभाणीए-अवहेलना पाती हुई यावत् वार-बार उन चेष्टाओं से रोके जाने पर, अयमेयारूवे-इस प्रकार के, अज्झथिए-उसके मन में विचार आये, जाव सम्पज्जित्था-ऐसा संकल्प उत्पन्न हुआ, जयाण-जब, अहं-मैं, अगारवासं वसामि-घर में थी, तयाणं अहं-तब मैं, अप्पवसा-स्वतन्त्र थी, जप्पभिइ च णजब से, अहं-मैं, मुडा भवित्ता-मुण्डित हुई हूं, अगाराओ अणगारियं पव्व इत्ता-घर छोड़ कर अणगार बनी हूं, तप्पभिई च णं-तब से लेकर, अहं-मैं, परवसा-पराधीन हो गई हूं, पुवि च-और पहले ये, समणीओ निग्गंथीओ आति परिजाणेति-श्रमणियां निर्ग्रन्थनियां मेरा आदर-सत्कार करती थीं, इणाणि-अब, नो आढाइंति नो परिजाणंति-आंदर सत्कार नहीं करती हैं, तं सेयं खलु-इसलिए निश्चय ही उचित है, मे---मुझे, कल्लं जाव जलते-कल सूर्योदय होते ही, सव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ-सुभद्रा आर्या के समीप से, पडिनिक्खमित्ता-अकेले ही निकलकर, पाडियक्कं-पृथक से, उवस्सयं-किसी अन्य उपाश्रय को, उवसंपज्जित्ता-स्वीकार करके, विहरित्तए-विचरण करना, अर्थात् अलग उपाश्रय में रहना, एवं संपेहेइ-इस प्रकार विचार करती है और, संपेहिता-विचार करके, कल्लं जाव जलते-प्रात: सूर्योदय होते हो, सुध्वयाणं अज्जाणं अतियाओ-सुभद्रा आर्या के समीप से, पडिनिवखमेइ, पडिनिक्वमित्ता-निकलती है और निकल कर, पाडियक्कं उवस्सयं-पृथक उपाश्रय में, उवसंपज्जित्ता ण-स्थान स्वीकार करके, विहरइ-विचरण करती है, तएणं-तत्पश्चात्, सा सुभद्दा अज्जा-वह सुभद्रा आर्या, अज्जाहि-अन्य आर्याओं द्वारा, अणोहट्रिया-निषेध करने पर भी न मानती हई, अणिवारियानिवारण न करती हुई, सच्छंदमई-स्वेच्छा से, बहुजणस्स चेडरूवेसु - बहुत लोगों के बच्चों में, मुच्छित्ता-मूर्छित हुई, जाव-यावत्, अम्भंगणं-उनका अभ्यंगन आदि करती है, जाव-यावत्, नत्तिपिवासं च-पौत्र पौत्रादि की पिपासा का, पच्चणम्भवमाणी-प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई, विहरइ-विचरने लगी ॥१४॥
मूलार्थ – तत्पश्चात् वह सुभद्रा आर्या (गुरुणी के रोकने पर भी) उस आर्या की