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वर्ग-प्रथम]
( १५४)
[निरयावलिका
लोक कितना बड़ा है ? लोक की मोटाई भगवान् महावीर ने एक रूपक द्वारा समझाई है - मान लो कि एक देव मेरुपर्वत की चूलिका (चोटी) पर खड़ा है जो एक लाख योजन को ऊंचाई पर है । नीचे चारों दिशाओं में चार दिक्कुमारियां हाथ में बलि पिण्ड लिए खड़ी हैं। वे बहिर्मुखी होकर एक साथ उन बलिपिण्डों को फेंकती हैं । देव उन चारों बलिपिण्डों को पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही हाथ से पकड़ लेता है और तत्काल दौड़ता है। ऐसी दिव्य शीघ्रगति से लोक का अन्त पाने के लिए ६ देव पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊंचो और नीची इन छह दिशाओं में चले । ठीक इसी समय एक श्रेष्ठी के घर में एक हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र उत्पन्न हुप्रा । उसकी आयु समाप्त हुई। इसके पश्चात् हजार-हजार वर्ष की आयु वाले उसके बेटे-पोते हुए। इस प्रकार की परम्परा से सात पीढ़ियां समाप्त हो गईं । उनके नाम-गोत्र भी मिट गए । तथापि वे देव तब तक चलते ही रहे, फिर भी लोक का अन्त न पा सके। यह ठीक है कि उन शीघ्रगामी देवों ने लोक का अधिकतर भाग तय कर लिया होगा, परन्तु जो भाग शेष रहा वह असंख्यातवां भाग है। इससे यह समझा जा सकता है कि लोक का आयतन कितना बड़ा है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्स्टीन ने लोक का व्यास एक करोड़ अस्सी लाख प्रकाश वर्ष माना
लोक के पायतन को पूर्वोक्त रूपक द्वारा समझने के पश्चात भी गौतम स्वामी की जिज्ञासा पूर्ण रूप से शान्त न हुई। वे सविनय बोले-"भन्ते ! यह लोक कितना बड़ा है ?" गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-“गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा है। यह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण तथा ऊर्ध्व और अधो दिशाओं में असंख्यात योजन कोटाकोटो (करोड़x करोड़) लम्बा चौड़ा है।
अवलोक-परिचय-मध्यलोक से ६०० योजन ऊपर का भाग ऊर्वलोक कहलाता है। उसमें देवों का निवास है, इसलिए उसे देवलोक या स्वर्गलोक कहते हैं।
देव चार प्रकार के होते हैं -भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । इस ऊर्ध्वलोक में कल्पोपन्न और कल्पातीत, ये दो प्रकार के वैमानिक देव ही रहते हैं। जिन देवलोकों में इन्द्र, सामानिक आदि पद होते हैं, वे देवलोक कल्प के नाम से प्रसिद्ध हैं। कल्पों (बारह देवलोकों) में उत्पन्न देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं, और कल्पों (बारह देवलोकों) से ऊपर के (नव अवेयक और पांच अनुत्तर विमानवर्ती) देव कल्पातीत कहलाते हैं। कल्लातीत देवों में किसी प्रकार की असमानता नहीं होती। वे सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। किसी कारणवश मनुष्य-लोक में माने का प्रसंग उपस्थित होने पर कल्पोपपन्न देव ही आते हैं; कल्पातीत नहीं। अन्तिम देवलोक का नाम सर्वार्थसिद्ध है।
इससे बारह योजन ऊपर सिद्धशिला है, जो ४५ लाख योजन लम्बी और इतनो ही चौड़ी है। इसकी परिधि कुछ अधिक तीन गुणी है । मध्यभाग में इसकी मोटाई आठ योजन है, जो क्रमशः