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निरयावलिका]
(३५२)
[वर्ग-पंचम
इस प्रकार निवेदन किया, सहामि णं भन्ते ! निग्गथं पावयणं-भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, जहा चित्तो सावगधम्म पडिवज्जइ-चित्त नामक सारथी के समान उसने श्रावक धर्म स्वीकार किया, पडिवज्जित्ता पडिगए-और स्वीकार करके वह अपने राज - महल में लौट गया ॥७॥
- मूलार्थ- तब उस निषध कुमार ने अपने महल के ऊपर बैठे हुए जनता द्वारा किये जा रहे उस महान् शोर को सुना तो वह भी जमाली के समान राज्य-वैभव के साथ (भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी के पावन सान्निध्य में पहुंचा और भगवान से धर्मतत्व को सुनकर उसने उसे हृदयंगम कर लिया, तब उसने भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी को वन्दना-नमस्कार किया और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया. . भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, चित्त नामक सारथी के समान उसने श्रावक धर्म स्वीकार किया, और स्वीकार करके वह अपने राज-महल में लौट गया॥७॥
... टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान गहावीर ने निषध कुमार के वैभव पूर्ण जीवन का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया है। निषध कुमार कैसे भगवान श्री अरिष्टनेमि जी के दर्शन करने जाता है उसका वर्णन भगवती सूत्र में वणित जमाली के प्रकरण की तरह जान लेना चाहिए । निषध कुमार ने भगवान अरिष्टनेमि के उपदेश से प्रभावित हो कर श्रावक-व्रत चित्त श्रावक की तरह धारण किये ।।७।।
मूल--तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नाम अणगारे उराले जाव विहरइ। तएणं से वरदत्ते अणगारे निसढं कुमारं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासो-अहो णं भंते ! निसढे कुमारे इठे इट्ठरूवे कंते कंतरूवे एवं पिए० मणुन्नए० मणामे मणामस्वे सोमे सोमरूवे पियदंसणे सुरूवे । निसढेणं भंते ! कुमारणं अयमेयारूवे माणुसइड्ढी किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता ? पच्छा जहा सूरियाभस्स, एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दोवे दीवे मारहे वासे रोहीडए नाम नयरे होत्या,