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अब सोमिल तापस बनने का संकल्प करता है वह बहुत से लोहे के कड़ाहे, कड़छियां और तापसों के तांबे के बर्तन बनवा कर तापस बन जाता । दीक्षा से पहले वह परिजनों को भोजन करवा कर उनका वस्त्र आदि से स्वागत करता है, फिर बड़े पुत्र को गृह-भार संभाल कर गंगा तट परतापस उपकरणों सहित आ जाता है। प्रस्तुत कथानक में अनेक प्रकार के तापसों का विवरण हमें प्राप्त होता है। उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :
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१. केवल एक कमण्डल धारण करने वाले, २. केवल फल खाने वाले, ३. एक वार जल में डुबकी लगाकर तत्काल बाहर निकलने वाले ४ बार-बार जल में डुबकियां लगाने वाले, ६. जल में भी गले तक डुबकी लगाने वाले, ६. वस्त्रों, पात्रों और देह को प्रक्षालित रखने वाले, ७. शंख-ध्वनि कर भोजन करने वाले, ८. सदा खड़े रहने वाले, ६. मद्य मांस भक्षण करने वाले, १०. हाथी का माँस खाकर जीने वाले, ११. सदा ऊंचा दण्ड किये रहने वाले, १२ बल्कल वस्त्र धारण करने वाले । १३. सदा पानी में रहने वाले १४. सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले, १५. केवल जल पर निर्भर रहने वाले, १६: जल के ऊपर रहने वाली शैवाल खाकर जीवन चलाने वाले, १७. वायु-भक्षण करने वाले, १८. वृक्ष -मूल का अहार करने वाले, १६. वृक्ष की छाल का आहार करने वाले, २०. केवल कन्द का आहार करने वाले, २१. वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले ३१. पुष्पों का आहार करने वाले, २३. बीजों का आहार करने वाले, २४. स्वतः दूर रह कर गिरे हुए पत्रों, पुष्पों, फलों का आहार करने वाले, २५. फेंका हुआ आहार ग्रहण करने वाले, २६. सूर्य की आतापना लेने वाले, २७. कष्ट सहनकर शरीर को पत्थर सा कठोर वनाने वाले, २८. पंचाग्नि तप करने वाले, २६. गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने वाले आदि ।
श्रीपपातिक सूत्र ' में भी तापसों का वर्णन प्राप्त होता है । सोमिल ब्राह्मण भी दिक्प्रोक्षक तापस • बना और वह तापसों द्वारा किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के तप करने लगा। उसने प्रतिज्ञा की कि जहां कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊंगा, मैं वहीं प्राण त्याग दूंगा। फिर उसने मुख पर काष्ठ- मुद्रा बांधी और उत्तर दिशा की ओर गया। पहले दिन अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर होम किया। वहीं एक देवता ने प्रकट होकर वहा - "सोमिल ! तुम्हारी प्रवज्या दुष्प्रवज्या है ।" पांचों दिन उसे भिन्नस्थानों पर यही देव वाणी सुनाई देती रही। पांचवें दिन उसने देवता से पूछा मेरी प्रवज्या सुवज्या कैसे है ?
देवता ने कहा - "तू ने अणुव्रत ग्रहण करके उनकी विराधना की है। अब भी समय है कि तुम मिथ्यात्व को त्याग कर पुन: अणुव्रत स्वीकार करो। देवता का कहना सोमिल ने माना और श्रावकत्व की साधना के कारण वह शुक्र देव बना ।
प्रस्तुत अध्ययन में भगवान श्री पार्श्वनाथ के समय की तापस-परम्परा का ऐतिहासक वर्णन किया गया है। तापस हठयोगी थे, वे हठयोग को ही मोक्ष का साधन मानते थे । भगवान पार्श्वनाथ हठ योग का खण्डन किया । उन्होंने कहा तप के साथ ज्ञान भी आवश्यक है। अज्ञानता में किया तप बाल तप है, वह मोक्ष का कारण नहीं हो सकता ।
(संतालीस)