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________________ निरयावलिका का चतुर्थ अध्ययन बहुत ही मनोरंजक, शिक्षाप्रद अध्ययन है। एक बार श्रमण भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारते हैं वहां भगवान के समवसरण में बहुपुत्रिका नाम की देवी अपनी दिव्य शक्ति से अपनी दाहिनी भुजा से १०८ देवकुमार और बायीं भुजा १०८ देवकुमारियां उत्पन्न करती है, जैन परिभाषा में इसे विकुर्वणा कहा जाता है । फिर वह इस लीला को लमेट लेतो है वह भोनाट्य-विधि आदि द्वारा अपना ऋद्धि का प्रदर्शन करता है। गणधर गौतम के समक्ष भगवान महावीर ने बड़ रोचक ढंग से उसके भूत वर्तमान और भविष्य का कथन किया है। भगवान महावीर फरमाते हैं किसी समय एक भद्र नाम का सार्थवाह था, उसकी सुभद्रा नाम की पत्नी थी। वह वन्ध्या थी । सन्तान प्राप्ति के लिए वह हर समय भटकतो रहती थो। उसने उपलब्ध सभी उपचार करवाये, पर सन्तान प्राप्त न हो सकी 1 एक बार पंच महाव्रत धारिणी साध्वो सुब्रता जो महाराज उस नगर में पधारों । वे भिक्षार्थ भद्रा के घर गई । भद्रा ने उनका सत्कार, सन्मान कर सन्तान न होने की चिन्ता साध्वी जी के सम्मुख रखी वीतरागी श्रमणा ने जो उत्तर दिया वह सभी वर्तमान साधु-साध्वियों के ध्यान में रखने योग्य है। साध्वा सुत्रता ने कहा - "ऐसा उपाय बताना तो एक तरफ, जैन धर्म में सन्तानउत्पत्ति के बारे में चिन्तन-मनन करना भी पाप है, क्योंकि हर ब्रह्मचारिणो साध्वियां निर्ग्रन्थनी ( जैन साध्वी ) हैं । हम तो जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ही धर्म-उपदेश करती हैं। सुभद्रा ब्राह्मणी सुव्रता आर्या से बहुत प्रभावित होती है । जैन साध्वी की चर्या से प्रभावित होकर वह स्वयं संयम अंगीकार कर लेती है, पर सन्तान के प्रति उसका मोह नहीं छूटता । वह बालकों को उबटन, शृंगार, भोजन, स्नान, क्रोड़ा आदि करवा कर मन की सन्तुष्टि करती है। पर यह सब कार्य श्रमणी - जीवनचर्या के प्रतिकूल थे। सुव्रता आर्या ने सुभद्रा श्रमणी को बहुत समझाया । पर वह बालक-बालिकों से अपना मन बहलाती रही। सुभद्रा श्रमणो अब अपनी गुरुणी की बात न मान कर अलग उपाश्रय में रहने लगी। गुरु के उपदेश का उस पर उल्टा प्रभाव पड़ा। वह सोचने लगी - "जब मैं घर पर थी तो स्वतन्त्र थी, अब पराधीन हो गई हूं। तब यह श्रमणियां मेरी बहुत ही इज्जत करती थीं । श्रमणी बनने के बाद तो यह मेरा अपमान कर रही हैं । मार्ग-भ्रष्ट व्यक्ति के लिए सच्चा उपदेश भी प्राण घातक प्रतीत होता है। , अन्त में बिना आलोचना किये वह मर कर सौधर्म कल्प में बहुपत्रिका देवी बनी । भविष्य में वह विभेल नामक सन्निवेश में सोमा ब्राह्मगी के रूप में उत्पन्न होगी। सोलह वर्षों तक विवाहित जीवन में ३२ युगल सन्तानों को जन्म देगी । यह बच्चे उसकी परेशानी का कारण बनेंगे, वह इन बच्चों से दुःखी हो कर पुनः साध्वी-जीवन ग्रहण करेगी। मृत्यु के पश्चात् पुन: देव बनेगी, फिर देव आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगी । बहुपुत्रिका अध्ययन से पता चलता है कि सन्तान का न होना भी बुरा है और सन्तान का अधिक होना उससे भी ज्यादा बुरा [ अठतालीस ]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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