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वर्ग-तृतीय]
( ३१३)
[निरयावलिका
(चैत्य) उद्यान था। वहां का राजा श्रेणिक था, भगवान् महावीर वहां पधारे। परिषद् आई और धर्म श्रवण कर चली गई। ____ उस काल एवं उस समय में एक माणिभद्र नाम का देव था जो सौधर्म कल्प की सुधर्मा नामक देव - सभा में माणिभद्र नामक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों के साथ बैठा हुआ था। पूर्ण भद्र देव के समान वह माणिभद्र नामक देव भी भगवान् महावीर के पास आया और अपनी नाट्य-विधि प्रदर्शित कर चला गया।
श्री गौतम स्वामी जी ने भगवान् महावीर से माणिभद्र देव के पूर्व भव के विषय में पूछा तो भगवान् ने उत्तर दिया कि-गौतम ! बहुत समय पूर्व एक मणिपादिका नाम की नगरी थी जिसमें वह माणिभद्र नाम का गाथापति रहता था। उसने स्थविर मुनिराजों के सान्निध्य में पहुंच कर प्रव्रज्या ग्रहण करली और ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक उसने श्रमण-पर्याय (साधुत्व-साधना) का पालन किया और अन्त में एक मास की संलेखना द्वारा साठ समय के भोजन का उपवासों द्वारा छेदन करके एवं पाप-स्थानों की आलोचना तथा प्रतिक्रमण करके (मृत्यु को प्राप्त कर) सौधर्म कल्प के माणिभद्र नामक विमान की उपपात सभा में देवशयनीय शय्या पर जन्म लिया। उसकी वहां दो सागरोपम की स्थिति होगी, वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बनेगा और जन्म-मरण सम्बन्धी सभी दुःखों का • अन्त करेगा।
हे जम्बू ! इस प्रकार भगवान् महावीर ने पुष्पिता के छठे अध्ययन के भावों का प्रतिपादन किया है ॥१॥
___मूल –एवं दत्ते ७ सिवे ८ बले अणाढिए १०, सव्वे जहा पुग्णभद्दे देवे सर्वसि दोसागरोवमाइं ठिई । विमाणा देवसरिसनामा । पुत्वभवे पत्ते चंदणाए, सिवे मिहिलाए बलो हत्थिणपुरनयरे, अणाढिए काकवीए, चेइयाइं जहा संगहणीए ॥२॥
॥तइओ वग्गो सम्मत्तो॥