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________________ वर्ग - तृतीय ] ( १६४ ) [ निरयावलिका hol में टीका - प्रस्तुत सूत्र श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम अध्ययन का वर्णन करते हुए बताया है कि जब चन्द्र देव अपनी नाट्य-विधि दिखाकर अपनी ऋद्धियां प्रदर्शित कर जाने की तैयारी करने लगा तो उसने समस्त ऋद्धियां अपने शरीर में समेट लीं। भगवान महावीर ने गणधर गौतम को चन्द्रदेव की इस अपूर्व ऋद्धि का कारण बताया कि किसी समय श्रावस्ती नगरी का अंगती गाथा - पति पुरुषादानीय तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का शिष्य बन गया। साधु बनकर उसने स्थविरों से एकादश अङ्गों का अध्ययन किया । बहुत लम्बे समय तक तप किया । अर्धमास की संलेखना कर संयम का विराधक बना। मर कर यही चन्द्र देव बना है । पुरिसादाणीए का अर्थ पुरुषों में आदरणीय है । जैसे कि वृत्तिकार का कथन है - पुरुषरादीयते पुरुषादानीयः मबुस्सेहे इसका अर्थ वृत्तिकार ने नवहस्तोच्छ्रायः नवहस्तोच्च किया है। गंगदत्त के बारे में वृत्तिकार का कथन है यथा गङ्गदत्तो भगवत्यङ्गोक्तः, स हि किपाक फलोवमं मुणिय विसपकरवं जसवण्णुयमाणं, कुसग्गबिंदु चंचल जीवियं च नाऊण नधवं, चइता हिरण्ण-विपुल धणकणग रयणमणि- मोतियसंख सिलप्प वालरतरयणमाइयं विच्छउइत्ता दाणं दाइयाणं परिचाइत्ता, आगाराओ अणगारयं पव्बइओ जहा तहा अंगई वि गिनायगो परिच्चइय सव्व पब्बइओ जाओ य पंच समिओ, तिगुत्तो, अममो अचिणो गुत्तिदित्रो गुत्तबंभयारी इत्येवं यावच्छन्दात् दृष्करम् । विराहिषं । इसका भावार्थ यह है कि मूल गुणों की विराधना न करता हुआ, उत्तर गुणों की विराधना करने से आहारादि की शुद्धि न की गई तथा अभिग्रह आदि का सम्यक् प्रकार से पालन न किया गया। इन बातों से सिद्ध होता है कि मूल गुणों का सर्वाधिक महत्त्व है। उत्तर गुणों को विराधना से ही चन्द्र देव की उत्पत्ति हुई । पर्याप्तियां पूर्ण होने पर सब क्रियाएं सूर्याभिदेव की तरह समझनी चाहिये। यह भाषा और मन को पर्याप्ति का एक मानकर पांच पर्याप्तियां बताई हैं। देवताओं को सूत्रकार ने इस प्रकार षट की जगह पांच पर्याप्तियां बताई हैं । चन्द्र देव ज्योतिष्क देवों का इन्द्र है इसका विस्तृत वर्णन चन्द्र-प्रज्ञप्ति व व्याख्या प्रज्ञप्ति में देखना चाहिये । उपसंहार में चन्द्र देव की आयु लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम बताई गई है । भविष्य में वह महाविदेह के धनाढ्य कुल में जन्म लेकर साधु बनेगा । फिर निर्वाण प्राप्त करेगा । मूल - जइणं भते ! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पढमस्स अायणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते वोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेषं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं काणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिये राया समोसरणं जहा चंदो तहा सूरोऽवि आगओ जाव नट्टविहि उवदंसित्ता
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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