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निरयावलिका]
(६१)
[बर्ग-प्रथम
निसम्म-और सुनते ही, चेल्लणं देवि-महारानी चेलना से, एवं वयासी-इस प्रकार बोलादुछु णं अम्मो-हे मां ! निश्चय ही एक दुष्कृत्य. मए कयं-मैंने किया है कि, सेणिय रायं-राजा श्रेणिक को (जो कि मेरे लिये), देव-देव स्वरूप, गुरुजणगं-परमोपकारक (गुरुतुल्य), अच्चं. तनेहाणुरागरत्तं-अत्यन्त स्नेहानुराग से युक्त हैं उन्हें, निलय-बंधणं करतेणं-हथकड़ियों बेड़ियों में वांधने वाले ने, तं गच्छामि-अतः मैं जाकर, सेणियस्स रनों- राजा श्रेणिक के, सयमेव निलयाणि छिदामि-स्वयमेव बन्धन भूत हथकड़ियों बेड़ियों को काटता हूं, ति कटु-ऐसा कहकर, परसुहत्थगए--हाथ में परशु लेकर, जेणेव चारगसाला-जहां जेलखाना था, तेणेव - वहीं पर, पहारेत्या गमणाए-पहुंचने के लिये चल पड़ा ॥५३॥
मूलार्थ-तदनन्तर उस राजा कूणिक ने महारानी चेलना से जब उपरोक्त वृत्तान्त सुना तो वह सुनते ही महारानी चेलना से इस प्रकार बोला-मां ! निश्चय ही मैंने राजा श्रेणिक को जो कि मेरे लिये देवता तुल्य हैं. मेरे परमोप कारक गुरु जैसे है और मुझ पर अत्यन्त स्नेहानुराग रखते हैं, उनके हथकड़ियों बेड़ियों जैसे बन्धन मैं स्वयमेव जाकर काटता हूं। यह कह कर वह हाथ में परशु लेकर जहां जेलखाना था वहां पहुंचने के लिये चल दिया ।।५३॥
___टीका-सदुपदेशों से और वास्तविकता को जानकर मनुष्य कैसा भी क्रू र क्यों न हो उसके हृदय का परिवर्तन हो ही जाता है।
___अपनी माता से पिता के स्नेहानुराग की वास्तविक बात को सुनते ही कोणिक का हृदय बदल गया और वह परशु (कुल्हाड़ा अथवा कुल्हाड़े जैसा कोई औजार जिससे शीघ्र ही बन्धन कट सकें) हाथ में लेकर उस जेलखाने की ओर चल दिया जहां राजा श्रेणिक को उसने बन्द किया था।
सूत्रकार ने उपर्युक्त उल्लेख से यह सिद्ध कर दिया है कि सदुपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाताउसका प्रभाव मनुष्य के मन पर पड़ता ही है ॥५३॥
मूल-तएणं सेणिए राया कूणियं कुमारं परसुहत्थगयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एस णं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए जाव सिरि. हिरिपरिवज्जिए परसुहत्थगए इह हव्वमागच्छइ। तं न नज्जइ णं ममं केणइ कु-मारणं मारिस्सइ त्ति कट्ट भीए जाव संजायभए तालपुडगं विसं मासगंसि पक्खिवइ।