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निरयावलिका ]
(७५)
[ वर्ग - प्रथम
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तए णं सा चेल्लणा देवी - तब वह रानी चेलना देवी, सेणिएणं रन्ना - राजा श्रेणिक द्वारा, एवं वृत्ता समाणी - इस प्रकार कहे जाने पर, लज्जिया - ( मन ही मन बहुत ) लज्जित हुई, विलिया - (बाहरी रूप से भी) लज्जित हुई और विड्डा - ( इस प्रकार दोनों रूपों में विशेष ) लज्जित होती हुई, करयल परिग्गहियं - दोनों हाथ जोड़ कर सेणियस्स रन्नो- राजा श्रेणिक के, विणयेणं - विनीत भाव से, एयमट्ठे पडिसुणे ईई - उस आदेश को सुनती है, पडिसुणत्ता - और सुन कर, तं दारयं - उस बालक का, आणुपुव्वेणं - क्रमशः उसकी अवस्था के अनुरूप, सारक्खमाणीसंरक्षण एवं संगोवेमाणी - उसका पालन-पोषण करती हुई, संवड्ढइ - उसका संवर्धन करने लगी ||४३||
मूलार्थ - तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने जब उस बालक सम्बन्धी वार्ता को सुना और जाना तो वह जहां पर अशोक वाटिका थी वहीं पर गया और वहां जाकर उसने उस निर्जन स्थान में कूड़े-करकट के ढेर पर फेंके गए बालक को देखा और देखते ही आंखें लाल करके अर्थात् क्रोध में आकर उस क्रोधाग्नि से जलते हुए, कुरड़ी पर पड़े उस बालक को दोनों हाथों से उठा लिया और उठाकर वह जिस राजमहल में चेलना देवी निवास करती थी वहीं आ गया और आते हो उसने चेलना देवी को ऊंच-नीच शब्दों द्वारा क्रोधान्वित शब्दों से डांटा, फटकारा और उसकी भत्सर्ना की, उसको तिरस्कृत सा किया और फिर उससे कहा - "देवानुप्रिये ! तुमने मेरे पुत्र को किस लिये कुरड़ी पर फिकवाया, " ऐसा कह कर पुनः ऊंच-नीच शब्दों द्वारा उसे सौगन्धे दिलवाते हुए कहा - "देवानुप्रिये ! तुम्हीं इस बालक का आयु के अनुरूप प्रत्येक अवस्था में इसकी रक्षा करते हुए और इसका पालन-पोषण करते हुए इसका संवर्धन करो ।"
राजा श्रेणिक के द्वारा ऐसे ऊंचे-नीचे शब्द कहे जाने पर वह मन ही मन बहुत ज्जित हुई और बाहर से भी वह लज्जित होती हुई प्रतीत हो रही थी (शायद नौकर करों की उपस्थिति के कारण ) इस प्रकार दोनों रूपों में लज्जित होतो हुई वह हाथ जोड़कर विनयपूर्वक राजा श्रेणिक के आदेश को सुनने लगी और सुनकर उस बालक का उसकी अवस्था के अनुरूप संरक्षण करती हुई उसका पालन-पोषण करके उसका संवर्धन करने लगी ॥४३॥
टीका - इस सूत्र के वर्णन द्वारा ध्वनित होता है कि राजा श्रेणिक अपने अनुचरों द्वारा सब तरह की सूचनायें तुरन्त प्राप्त करता रहता था ।