SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र की ओर आकर्षित हुए थे। एक ही हस्तलिखित ग्रन्थ के आधार पर डा. वारेन ने इस शास्त्र के मूल का सर्वप्रथम सम्पादन १८७६ में किया था। लगभग सौ साल बाद बेल्जियम के प्रोफेसर दलो ने भारत में विविध उपलब्ध सम्पादनों के आधार पर मूल सूत्र का पुनः प्रकाशन किया था ? उनके महत्वपूर्ण शोध लेख में अनुवाद नहीं है, पर विस्तृत भूमिका तथा सूत्र का सार और अध्ययन प्रभावशाली भाषा में लिखे गए हैं । अन्त में संक्षिप्त विवरण अंग्रेजी में दिया गया है। प्रस्तुत प्रागम का हिन्दी अनुवाद लगभग ४५ साल पहले पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने तैयार किया था। पर वह अप्रकाशित रहा। वे आचार्य स्थानकवासी जैन संघ के प्रथम पट्टाधीश तथा संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थों के प्रथम हिन्दी टोकाकार थे। महाराज जी को यह पता था कि हिन्दी भाषा के प्रयोग के बिना जैन आगमों का ठीक प्रचार नहीं हो सकेगा। अनुवाद के अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थ में सरल हिन्दी भाषा में लिखी हुई विस्तृत टीका भी मिलती है, जिसमें पाठकों के लिये मूल सूत्र के सब सन्दर्भो की पूरी व्याख्या प्राप्त हो जाती है। कठिन शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए चन्द्र सूरि की संस्कृत व्याख्याएं भी स्थान-स्थान पर उद्धृत की गई हैं और आगमोदय समिति के द्वारा प्रकाशित हुए सम्पादन के पाठ-भेद भी दिये गए हैं। . ___ अतः हमें विशेष प्रसन्नता है कि प्राचार्य महाराज जो को यह महत्वपूर्ण कृति आज प्रकाशित हो रही है। इस प्रशंसनीय कार्य को प्रेरिका साध्वो श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज हैं, जो प्रस्तुत ग्रन्थ की मुख्य सम्पादिका हैं। साध्वी श्री स्मृति जी महाराज M. A. और श्री पुरुषोत्तम जैन जी तथा श्री रविन्द्र जैन जी तथा श्री तिलकधर शास्त्री जी सम्पादक मण्डल में उनके सहयोगी हैं। पंजाबी जैन संघ इन महानुभावों से भली-भान्ति परिचित है । बड़े उत्साह से वे जैन धर्म का प्रसार करने के शुभ कार्य में तत्पर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए अपना समय देने वाले और परिश्रम करने वाले सब व्यक्तियों के हम अत्यधिक कृतज्ञ हैं। इस पुस्तक को नित्य पढ़ने से जन-धर्म प्रेमी भाइयों और बहिनों को लाभ हो तथा निरयावलिका सूत्र के पात्रों की तरह उनको अन्त में मोक्ष भी प्राप्त हो, यही है मेरी मंगल-कामना। . .. -Nalini Balbir (नालिनी बलवीर) University of Paris- 3 (FRANCE) 1. Dr. S. WARREN, Nirayavaliyasuttam, een Upanga der Jaina's. Met Inleiding, Aantee keningen en Glossar. Amsterdam, 1879. 2,, J. DELEU, Nirayavaliyasuyukkandha. Uvanga's 8-12 van de jaina Canon. Orientalia Gandensia IV. 2967 (Brill, 1969), pp. 77-150. [ चौबीस
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy