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निरयावलिका]
(१०१)
[बर्ग-प्रथम
व्यक्ति, अन्नमन्नस्स-परस्पर (एक-दूसरे से), एवमाइक्खइ- इस प्रकार कहने लगे, जाव० पहवेइ-यावत् आलोचनात्मक विचार करते हैं, एवं खलु देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रियो ! क्या यह निश्चय पर्वक नहीं कहा जा सकता कि, वेहल्ले कमारे-वेहल्ल कमार ही, एयणएणं गंधहत्थिणाइस गन्धहस्ती को पाकर, अंतेउर०-अपनी रानियों एवं अपने निजी परिवार के साथ, तं चेव जाव. अणेगेहि कोलावणएहि-वही अनेक प्रकार को क्रोडाओं द्वारा, कोलावेइ-क्रीडायें करता है-खेल खेलता है, तं एस णं वेहल्ले कुमारे - इसलिये यह वेहल्ल कुमार हो, रज्जसिरिफलंराज्य-लक्ष्मी-राजसी ऐश्वर्य का, पच्चणुब्भवमाणे-अनुभव करता हुआ उससे लाभ उठाता हुआ, विहरइ-सुखपूर्वक जी रहा है। नो कूणिए राजा-कणिक राजा होते हुए भी राज्य श्री का लाभ नहीं उठा रहा ।।५।।
मूलार्थ-तत्पश्चात् अर्थात् वेहल्ल कुमार की क़ीड़ाओं को देखकर चम्पा नगरी के तिराहों. चौराहों और राजमार्गों पर खड़े अनेक व्यक्ति परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हुए आलोचना करने लगे कि देवानुप्रियो ! क्या यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वेहल्ल कुमार हो इस गन्धहस्ती को पाकर अपनी रानियों एवं अपने निजी परिवार के साथ अनेक प्रकार की क्रीडायें करता हुआ राज्य-सुख का पूरा-पूरा अनुभव कर रहा है ? अर्थात् वही राज-ऐश्वर्य का उपभोग कर रहा है, कूणिक राजा होते हुए भी राजसी ऐश्वर्य का पूर्ण रूप से उपभोग नहीं कर पा रहा ।।५९॥
टीका-इस सूत्र द्वारा चम्पा नगरी के त्रिकोण मार्गों चौराहों प्रादि का जो वर्णन किया गया है उससे चम्पानगरी को विशालता और सुव्यस्थित रचना का बोध हो रहा है।
प्राचीन काल से लोगों की यह आदत रही है कि एक दूसरे की अकारण ही आलोचना करते. रहते हैं। चम्पा नगरी के नागरिक भी इसी प्रकार की आलोचना कर रहे थे-इसे ही “लोकप्रवाद" कहा जाता है ॥५६॥
मूल-तएणं तोसे पउमावईए देवीए इमोसे कहाए लद्धट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कोलावणएहिं कोलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया, तं किं