SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग-प्रथम ] ( १०२) [निरयावलिका अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ णं अम्हं सेयणगे गंधहत्थी नत्थि ? तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयमद्रं विन्नवित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ. संपेहित्ता जेणेव कूगिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेहिं कीलावणएहि कोलावेइ, तं किण्णं सामी ! अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइणं अम्हं सेयणए गंधहत्थी नत्थि ? ॥६०॥ छाया-ततः खलु तस्याः पद्मावत्या देव्या अस्या. कथायाः लब्धार्थायाः सत्या अयमेतदरूपी यावत् समुपद्यत-एवं खलु वेहल्लः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः कोड़नकैः क्रीडयति, तदेव खलु वेहल्लः कुमारो राज्य श्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा, तक्किमस्माकं राज्येन यावज्जनपदेम वा यदि खल्वस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति, तच्छ यः खलु मम कूणिक राजानमेतमर्थ विज्ञपयितुम्, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य यत्रैव कूणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कर-तल० यावदेवमब्रवीत्, एवं खलु स्वामिन् ! वेहल्लः कुमारः सेचन केन गन्धहस्तिना यावद् अनेकः कीडनकः क्रीडयति, तत्कि खलु स्वामिन् ! अस्माकं राज्येन वा-यावद् जनपदेन वा यदि खल्वस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति ।।६०॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, तोसे पउमावईए देवीए-उस पद्मावती देवी को, इमीसे कहाए-इस समाचार के, लट्ठाए समाणीए-प्राप्त होने पर, अयमेयारूवे-इस प्रकार का विचार, जाव०-यावत्, समप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ, एवं खल-इस प्रकार तो, वेहल्ले कुमारे-वेहल्ल कुमार ही. सेयणएणं गन्धहत्थिणा-सेचनक हाथी के द्वारा, जाव-यावत्, अणेगेहि कोलावणएहि-अनेक प्रकार के खेल, कोलवई-खेल रहा है, तं एस णं वेहल्ले कुमारे-अतः यह वेहल्ल कुमार ही, रज्जसिरीफलं-राज्य-वैभव-प्राप्ति के फल का, पक्चणुब्भवमाणे-अनुभव करता हुआ, विहरह-विहार कर रहा है, अर्थात् जीवन का आनन्द लूट रहा है, नो कूणिए राया-राजा कूणिक नहीं। तं कि अम्हं-(ऐसी दशा में) हमारा, रज्जेण वा जाव० जणपएण वा- इस राज्य और इस जनपद (पर अधिकार का क्या प्रयोजन रह जाता है), जइ णं अम्हे-यदि हमारे पास, सेयणगे गन्धहत्पी नत्थि-सेचनक हाथी नहीं है, त सेयं खलु मम-इसलिये अब इसी में मेरा श्रेय है कि, कूणियं रायं-(मैं) राजा कूणिक से, एयमलैं-यह बात, विन्नवित्तए-निवेदन कर दूं, त्ति कटु-ऐसा करके अर्थात् यह बात मन में आते ही, एवं संपेहेइ-यह निश्चय करती है (और), संपेहित्ता-निश्चय करके, जेणेव कूणिए राया-जहां पर राजा कूणिक था, तेणेव उवागच्छइवहीं पर आती है (और), ,उवागच्छित्ता-वहां पहुंच कर, करयल० जाव-दोनों हाथ जोड़ते हुए, एवं वयासो-इसे प्रकार बोली, एवं खलु सामो-हे स्वामिन् ! (जब कि), वेहल्ले कुमारे-वेहल्ल
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy