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निरयावलिका)
(३०८)
[वर्ग-तृतीय
छाया-ततः खलु सः पूर्णभद्रो गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टो० यावत् प्रज्ञप्त्यां गङ्गदत्तस्तथैव निर्गच्छति यावद् निष्क्रान्तो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। ततः खलु स पूर्ण भद्रोऽनगारो भगवतामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य चतुर्थ षष्ठाष्टम० यावद् भावयित्वा बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पायित्वा मासिक्या सलेखनया षष्ठि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित-प्रतिकान्तः समाधि प्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावद् भाषामनःपर्याप्त्या।
एवं खलु गौतम ! पूर्णभद्रेण देवेन सा दिव्या देवद्धिः यावद् अभिसमन्वागता । पूर्णभद्रस्य खलु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता। पूर्णभद्रः खलु भवन्त ! देवस्तस्माद् देवलोकाद् यावत् क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावदन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन निक्षपकः ।।२।।
॥ पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥५॥
पदार्थान्वयः-तएणं से पुणभद्दे गाहावइ-तभी वह पूर्णभद्र नामक गाथापति, इमीसे कहाए लद्धढे समाणे-उनके आगमन सम्बन्धी समाचार के प्राप्त होते ही, हट्ट जाव पण्णत्तीए-अत्यन्त प्रसन्न हृदय से जैसे प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) में, गंगदत्ते तहेव निगच्छइ-गंगदत्त घर-बार को त्याग कर मुनिराजों की शरण में पहुचा था वैसे ही वह भी, निक्खंतो—सब कुछ छोड़ कर उनके पास पहुंचा (और), जाव गुत्तबंभयारी-ईर्यासमिति आदि का पालन करते हुए गुप्त ब्रह्मचारी हो गया।
तएणं से पुण्णभद्दे अणगारे-तदनन्तर (मुनि दीक्षा-ग्रहण कर) वह पूर्णभद्र मुनि, भगवंताणं तिए-उन स्थविर भगवन्तों के पास (रहते हए), सामाइयमादियाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ–सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करता है, अहिज्जिता-और अध्ययन करके, बर्हि चउत्थ-छठ्ठट्ठम जाव-बहुत से चतुर्य, षष्ठ, अष्टम, आदि (रूप) तप द्वारा, भावित्ता-अपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहूहि वासाई-अनेक वर्षों तक, सामग्णपरियागं-श्रामण्य-पर्याय (साधुत्व की साधना का उसने) पाउणइ-पालन किया, पाउणित्ताऔर पालन करके, मासियाए सलेहणाए-एक मास की संलेखना द्वारा, सठ्ठि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता-साठ भक्तों को (दोपहर और सायं कालीन साठ बार के भोजन) का अनशन द्वारा छेदन करके, अर्थात् एक मास तक निरन्तर उपवास तपस्या करके, आलोइय-पडिक्कते-आलोचना और प्रतिक्रमण करते हुए, समाहिपत्ते-समाधिपूर्वक, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु का समय आने पर प्राणत्याग करके, सोहम्मे कप्पे-सौधर्म कल्प नामक देवलोक के, पुण्णभद्दे विमाणेपूर्णभद्र नामक विमान की, उववायसभाए-उपपात सभा में, देवसयणिज्जसि-देव शयनीय शय्या में देवरूप में उत्पन्न होकर , जाव भाषामण-पज्जत्तीए-आहार, शरीर भाषा-मत्रः पर्याप्ति रूप में पांचों पर्याप्तियों को प्राप्त कर पूर्ण देव बन गया।