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________________ वर्ग-तृतीय] (३०६) [निरयावलिका • एवं खलु गोयमा-हे गौतम इस प्रकार, पुण्णभद्देण देवेणं-उस पूर्णभद्र नामक देव को, सा दिव्या देविड्डी-वह दिव्य देव-समृद्धि, जाव अभिसमण्णागया-प्राप्त हो गई, पुण्णभद्दस्स गं भंते- गौतम स्वामी जी ने भगवान् महावीर से पुन: प्रश्न किया-) भगवन् ! (सौधर्म कल्पदेवलोक में), देवस्स-पूर्ण भद्रदेव को, केवइयं कालं ठिई पण्णता-कितने समय की स्थिति कही गई है ?, गोयमा!-(भगवान् महावीर ने कहा-), गोयम! हे गौतम !, दो सागरोवमा-दो सागरोपम की, ठिई पण्णत्ता-स्थिति कही गई है। (गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-) पुब्वभद्दे णं भंते-भगवन् वह पूर्णभद्र, तओ देव लोगाओ--उस देवलोक से, जाव कहिं गच्छिहिइ-च्यवकर कहां जाएगा, कहिं उवबज्जिहिइकहां उत्पन्न होगा ? (भगवान महावीर ने उत्तर में कहा-) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ-वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, जाव अंतं काहिइ-वह सब दुःखों का अन्त करेगा। एवं खलु जम्बू!-जम्बू ! इस प्रकार, समणेणं भगवया-श्रमण भगवान महावीर ने, जाव संपत्तेणं-जो मोक्षधाम को प्राप्त हो चुके हैं, उन्होंने, निक्खेवओ-पुष्पिता के पंचम अध्ययन का इस प्रकार प्रतिपादन किया है ॥२॥ मूलार्थ..-तभी वह पूर्णभद्र नामक गाथापति उनका आगमन सम्बन्धी समाचार प्राप्त होते ही अत्यन्त प्रसन्न हृदय से जैसे प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) में गंगदत्त घर-बार को त्याग कर मुनि वृन्द की शरण में गया था, वैसे ही वह भी सब कुछ छोड़कर उनके पास पहुंचा और ईर्या-समिति आदि का पालन करते हुए गुप्त ब्रह्मचारी बन गया। मुनि दीक्षा-ग्रहण करने के अनन्तर वह पूर्णभद्र मुनि उन स्थविर भगवन्तों के पास (रहते हुए) सामायिक आदि ग्यारह अंग-शास्त्रों का अध्ययन करता है और अध्ययन करके बहुत से चतुर्थः षष्ठ, अष्टम आदि (रूप) तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए अनेक वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय (साधुत्व की साधना) का उसने पालन किया, और पालन करके एक मास की संलेखना द्वारा साठ भक्तों को (दोपहर और सायंकालीन भोजन) के क्रम से साठ समयों के भोजन का अनशन द्वारा छेदन करके अर्थात् एक मास तक निरन्तर उपबास तपस्या करके आलोचना और प्रतिक्रमण करते हुए समाधि-पूर्वक मृत्यु का समय आने पर प्राण-त्याग करके सौधर्म कल्प .नामक देवलोक के पूर्णभद्र नामक विमान की उपपात सभा में देवशयनीय शय्या में
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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