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श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य-समाद जैन-धर्म-दिवाकर पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज
आशीर्वचन
जैन आगम साहित्य भारतीय ज्ञान-विज्ञान का अक्षय कोश है, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, पुनर्जन्म, कर्म-प्रवृत्ति आदि विषयों पर जितना विशद रूप से जैनागमों का विश्लेषण हुआ है उतना विश्व के अन्य साहित्य में कहीं नहीं हुआ। चाहे आध्यात्मिक प्रश्न हो चाहे दार्शनिक प्रश्न हो, चाहे आचार का प्रश्न हो, चाहे विचार का, सभी प्रश्नों का सटीक समाधान जैन ग्रन्थों में मिलता है। पागम साहित्य अंग उपांग, मूल छेद आदि के रूप में विभक्त है।
जिस अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं वह अंग साहित्य है और जिसके अर्थ के प्ररूपक तोर्थङ्कर और सूत्र के रचयिता गणधर या स्थविर हैं, वह अंग-बाह्य आगम है । उपांग सूत्र अङ्ग बाह्य आगमों में है। निरियावलिका यह उपांग सत्र है। कप्पिया, कंप्पवडंसिया, पुफिया, पुप्फलिया, वह्नीदशा इन पाँचों का समवाय निरियावलिका के नाम से विश्रुत है। .
प्रस्तुत आगम में भगवान महावीर के परम भक्त सम्राट् श्रेणिक और उसके पारिवारिक जनों का विस्तार से निरूपण है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषयों का इसमें निरूपण हुआ है । आगम साहित्य में प्रस्तुत आगम का अपना अनूठा स्थान है।
___ महामहिम जैन-धर्म-दिवाकर स्वर्गीय आचार्य-सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज ने विक्रम सम्वत् २००३ में प्रस्तुत आगम पर विस्तार से विवेचन लिखा था। अन्य आगमों के साथ उस समय प्रस्तुत आगम का प्रकाशन किन्हीं कारणों से नहीं हो सका।
परम आल्हाद का विषय है कि परम-विदुषी साध्वी-रत्न उपप्रवतिनी थी स्वर्णकान्ता जी म० के प्रधान सम्पादकत्व में सम्पादक मण्डल-श्री सुधा जी महाराज की शिष्या साध्वी श्री स्मति जी महाराज, श्री तिलकघर शास्त्री एवं एक प्राण दो देह के रूप में प्रसिद्ध रवीन्द्र जैन पुरुषोत्तम जैन ने प्रस्तत आगम का पुनः सम्पादन कर स्वर्गीय आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के भो चरणों में अपनी अनन्त आस्थाएं व्यक्त की हैं और स्वर्गीय आचार्य-सम्राट के दीक्षा शताब्दी वर्ष पर मां भारती के भण्डार में एक और ग्रन्य-रत्न समर्पित कर शासन को गरिमा में चार-चांद लगाये हैं, एतदर्थ श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज एवं सम्पादक मण्डल साधुवाद के पात्र हैं।
रोहतक दिनांक 20-3-94
• आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री