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________________ वर्ग-तृतीय] (२२८) [निरयावलिक तएण से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, कल्ल जाव जलते-दूसरे दिन सूर्योदय होने पर वागलबत्थ नियत्थे-वल्कल वस्त्र धारण करके. किढिणसकाइयं गिला-अपनी बंहगी उठा लेता है (और , गिण्हिता-उठाकर, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ-काष्ठ-मुद्रा से अपना मुंह बांधकर, उत्तरदिसाए उत्तराभि मुहे संपत्थिए-उत्तर दिशा की ओर मुख करके उत्तर दिशा में चल दिया।।१३।। मूलार्थ तदनन्तर उस सोमिल के सामने सूर्यास्त से कुछ ही पूर्व एक देवता प्रकट हुआ। तब वह देवता अन्तरिक्ष में ही खड़े-खड़े जैसे अशोकवृक्ष के नीचे बोला था (वैसे ही बोला और ) तिरस्कृत होकर जिधर से आया था उधर ही लौट गया । तत्पश्चात् वह सोमिल दूसरे दिन प्रात:काल के समय सूर्योदय होते हो वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी बंहगी उठाता है और उठा कर काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांध लेता है और उत्तराभि मुख होकर उत्तर दिशा में हो चल देता है ॥१३॥ टोका-सम्पूर्ण वर्णन अत्यन्त सरल है ।।१३।। मूल--तएणं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्ढेइ जाव गंगं महानई पच्चुसरइ, पच्चत्तरिता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागन्छित्ता वेइं रएइ जाब कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठइ। तएणं तस्स सोमिलस्स पुवरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भए तं चैव भणइ जाव पडिगए। तएणं से सोमिले जाव जलते वागलवत्यनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए ॥१४॥ छाया-ततः खलु स सोमिलस्ततीयदिवसे पश्चादपराह्नकालसम्ये यौवाशोकवरपादपस्तत्रयोपागच्छति, उपागत्य अशोकवरपादस्पाधः किढिणसाकायिक स्थापपति, वेदि वर्धयति, यावद् गङ्गा महानदी प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रवाशोकवरपादपस्तत्रवोपागच्छति, उपागत्य वेदि रचयति, यावत्
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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