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________________ [ वर्ग-तृतीय काष्ठमुद्रयामुखं वनानि, तूष्णीकः संतिष्ठते ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररा काले एको hatsन्तिकं प्रादुर्भूतः तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खल् स सोमिलो यावत् ज्वलति वल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिक यावत् काष्ठमृद्रमा मुखं बध्नाति बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखं संप्रस्थितः ।। १४ ।। निरंयावलिका । isinIIMIL ( २२६ ) इ दार्थान्वयः -- लएणं - तत्पश्चात्, से सोमिले- वह सोमिल, तइयदिवसम्मि- तीसरे दिन, पच्छावरण्हकाल समयंसि - दिन के चौथे प्रहर में, जेणेव असोगवरपायवे - जहां पर अशोक नामक वृक्ष था। तेणेव उवागच्छइ वहीं पर आ जाता है, उवागच्छिता - वहां आकर, असोगपावस आहे - उस अशोक वृक्ष के नीचे, किठिण संकाइयं अपनी बहंगी को, ठवेइ — रख देता है वे बड्डू - वेदो बनाता है, जाव- पहले की तरह सभी धार्मिक अनुष्ठान करके, गगं महानदीं पच्चत्तर - गंगा महानदी में स्नान करके बाहर आता है, पच्चत्तरिता-और बाहर बाकर, जेणेव असोग बरपायवे - जहां वह अत्युत्तम अशोक नामक वृक्ष था, तेणेव उवागच्छइ-बहीं पर आ जाता है, उवागच्छित्ता- वहां आकर, वेई रएइ - वेदिका का निर्माण करता है, जाबऔर अग्निहोत्र आदि करके, कट्ठमुद्दाए महं बन्धइ - काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है, धिता और बांध कर तुसिणीए संचिट्ठइ मौन धारण करके बैठ जाता है। 5 · तएणं - तत्पश्चात् तस्स सोमिलस्स- उस सोमिल नामक ब्राह्मण के पुव्वरत्तावरत्तकाले - आधी रात के समय, एगे देवे - एक देवता, अतिय पाउन्भूए- उसके समीप आकर प्रकट हुआ, तं चेब भणइ जाव० - उसने पुन: उससे पहले को तरह ही कहा, पडिगए - और पहले की तरह ही लौट गया, सएणं - तत्पश्चात्, से सोमिले - वह सोमिल, जाव जलते - प्रातःकाल सूर्योदय होने पर, वागलबस्थ - नियत्थे - बल्कल वस्त्र पहन कर किढिण संकाइयं-अपनी बहंगी (कांबड) को उठाकर, कटु मुद्दा म्हं बंघित्ता - काष्ठ की मुद्रा से मुंह को बांधकर, उत्तराए दिलाएउत्तर दिशा में, उत्तरामि मुहे - उत्तराभिमुख होकर, संपत्थिए — उसने प्रस्थान कर दिया || १४ || - मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्राह्मण सायंकाल के समय जहां पर अशोक नामक वृक्ष था वहां पर पहुंच जाता है, पहुंच कर उस अशोक वृक्ष के नीचे अपनी बंहगी ( कांवड़ ) को रख देता है और एक वेदिका का निर्माण करता है, फिर अपनी आस्था के अनुरूप धार्मिक कृत्य करके गंगा महानदी में स्नान करके बाहर आता है और आकर जहां पर अशोक वृक्ष था पुनः वहीं लौट आता है और लौट कर वेदिका का निर्माण कर अग्निहोत्रादि कर्म करता है तथा काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांध कर मौन धारण करके बैठ जाता है । तत्पश्चात् उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष अर्ध रात्रि में एक देव प्रकट होकर पूर्व -
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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