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निरयावलिका ]
( १३३ )
[ वर्ग - प्रथम
ततः खलु स कूणिको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! अभिषेक्यं हस्तिरस्नं प्रतिकल्पयत, हय-गज-रथ-चतुरङ्गिणीं सेनां संनह्यत मामाज्ञप्तां प्रत्यर्पयत यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ ७६
पदार्थान्वयः - तएणं – तत्पश्चात् से कूणिए राया - वह राजा कोणिक, कोडुम्बिय-पुरिसे सद्द वेइ सद्दावित्ता— कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है और बुलाकर एवं व्यासी- इस प्रकार कहने लगा, खिप्पामेव भो देवाप्पिया - हे देवानुप्रिय शीघ्र ही, आभिसेवक हत्थिरयणं पडिक पेह-बैठने योग्य अभिषिक्त हस्ति रत्न को तैयार करो, हयगयरह चाउरंगिण सेगं संनाहेह - घोड़े, हाथी, रथ श्रादि चतुरंगिणी सेना तैयार करो, ममं एयमाणत्तियं पच्चपिणह- मेरी इस आज्ञा का पालन करो, जाव पच्चपिणन्ति - यावत् वे पुरुष उस कोणिक राजा की आज्ञा को पूरा करते हैं || ७६ ॥
मूलार्थ-तत्पश्चात् उस राजा कोणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुला कर इस प्रकार आज्ञा प्रदान करते हुए कहने लगा - हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही (मेरे) बैठने योग्य अभिषेक किया हुआ हस्ति रत्न सुसज्जित ( तैयार ) करो और इसी तरह अश्व-गज-रथ आदि चार प्रकार की सेना तैयार करो, मेरी आज्ञा पूरी करके मुझे सूचित करो । उसको इस आज्ञा का पालन करते हैं ॥७६॥
टीका - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि राजा कोणिक ने देखा कि उसके दस भाई अपनी अपनी सेना लेकर चम्पा आ गए हैं। तब कोणिक ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि वे भी एक अभिषेक किया हुआ बैठने योग्य हाथी तैयार करें, साथ में चारों प्रकार को सेना को तैयार रहने का आदेश दो । सेवकों ने कोणिक की राजा की आज्ञा का पालन किया । हस्तिरत्न का अर्थ है प्रमुख हाथो । इसलिए इसे गजरत्न भी कहा गया है।
चतुरंगिणी सेना का वर्णन मोपपातिक सूत्र में विस्तार से मिलता है, अतः जिज्ञासुओं को उस सूत्र का स्वाध्याय करना चाहिये ।
उत्थानिका - तत्पश्चात् कोणिक राजा ने क्या किया अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैंमूल-तएण से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ जाव पडिनिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जाव नरवई दुरूढे ।