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निरयावलिका]
( ३२४)
[वर्ग-चतर्थ
अपने घर से बाहर निकली, पडिनिक्खमित्ता--(और) बाहर निकल कर, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला- जहां पर बाहरी उपस्थानशाला (रथ-घोड़े आदि रखने और बांधने का स्थान) थी, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ जाती है, (और) उवागच्छित्ता-वहां आकर, धम्मियं जाणपवरं दुरूढा-अपने धर्म-कार्यों के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ पर बैठी। तएण सा भया दारिया-तदनन्तर वह भूता नाम वाली कन्या, नियपरिवार परिवुडा-अपनी दासियों एवं सहेलियों आदि रूप परिवार से घिरी हुई, रायगिहं नयरं-राजगृह नगर के, मज्झं मज्झेणं-बीचों-बीच के (मध्य मार्ग से), निगच्छई-निकलती है (और वह), निगच्छिता-निकल कर, जेणेव गुणसिलए चेइए-जहां गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ पहुंचती है, उवागच्छित्ता-(और) वहां आकर, छत्तादीए तित्थकरातिसए-तीर्थङ्कर भगवान के छत्र आदि अतिशयों के, पासइ-दर्शन करती है, धम्मियाओ जाणप्पवराओ-अपने धर्म-कार्यों के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ से, पच्चोरुह इ-नीचे उतरती है (और), पच्चोरुहिता-नीचे उतर कर, चेडी चक्कवाल-परिकिण्णा-अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई, जेणेव पासे अरहा परिसादाणीए-जहां पर पुरुष श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु पार्श्व विराजमान थे, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ जाती है, उवागच्छित्ता और वहां आकर, तिक्खुत्तो जाव पज्जवासइ और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना नमस्कार करके उनकी उपासना करने लगती है।
तएणं पासे अरहा परिसादाणीए-तदनन्तर पुरुष-श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जीने, भूयाए दारियाए-भूता कन्या को, तीसे महइ० धम्म कहा-उस महती धर्म सभा में ही धर्मकथा सुनाकर उसे प्रतिबोधित किया, धम्म सोच्चा णिसम्म-भूता दारिका उनके उपदेश को सुनकर एवं उसको हृदय में धारण कर, हट्ठ० वंदइ-प्रसन्न होकर उन्हें वन्दना करती है, वंदित्ता(और वन्दना करके), एवं वयासी-इस प्रकार निवेदन करने लगी, सद्दहामि णं भंते-भगवन् ! मैं आपके द्वारा प्ररूपित निर्ग्रन्थ वचनों पर श्रद्धा रखती हूं, जाव अब्भुठेमिणं भन्ते ! भगवन् ! मैं उस धर्माराधना के लिये प्रस्तुत हूं, निग्गथं पावयणं से जहे तुब्भे वदेह-जिस निर्ग्रन्थ-प्रवचन को आपने समाझया है, जं नवरं देवाणुप्पिया!-भगवन् ! मैं उसका यथावत् पालन करूंगी, अम्मा-पियरो आपुच्छामि-मैं पहले घर जाकर माता-पिता से पूछती हूं (अर्थात् आज्ञा लेती हूं, तएणं अहं जाव पव इत्तिए-तदनन्तर मैं आपकी शरण में आकर प्रवज्या ग्रहण करूंगी।
(भगवान ने कहा)-अहासहं देवाणु प्पिया!-देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो (वैसा करो।।३।।
मूलार्थ- तदनन्तर वह भूता नाम की कन्या ने स्नान किया उसने अपने शरीर पर अच्छे वस्त्र एवं अलंकार धारण किए, वह अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई अपने घर से बाहर निकली और बाहर निकल कर जहां पर बाहरी उपस्थानशाला (रथ-घोड़े आदि रखने और बांधने का स्थान) थी वहीं पर आ जाती है और वहां आकर