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निरयावलिका]
( ३४८)
[वर्ग-पंचम
दानिक भेरी को, महया-महया सद्देणं- बहुत ऊंचे-ऊचे स्वर से, तालेइ-बजाते हैं ।।५।।
मूलार्थ- उस समय उस काल में अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्ट नैमी जी जो कि दस धनुष प्रमाण शरीर वाले थे और धर्म के आदि कर थे अर्थात् जो इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जो के अनन्तर हजारों वर्षों के बाद धर्म का प्रवर्तन करने वाले थे वे द्वारिका नगरी में पधारे । उनके दर्शनों एवं प्रवचनों के श्रवणार्थ नागरिकों के समूह अपने-अपने घरों से निकले।
___ तदनन्तर वासुदेव श्रीकृष्ण, भगवान अरिष्ट नेमि जी के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही अत्यन्त प्रसन्न होकर, अपने पारिवारिक सेवकों को बुलवाते हैं और बुलवा कर उन्हें इस प्रकार आदेश देते हैं कि- "हे देवानुप्रियों ! आप लोग शीघ्र ही, सुधर्मा सभा में पहुंच कर सामुदानिक भेरी (वह भेरी जिसके बजने पर सभी अपेक्षित जन एकत्रित हो जायें) बजाओ । तदनन्तर वह सेवक वर्ग वासुदेव श्री कृष्ण की आज्ञा सुनकर जहां सुधर्मा सभा थी और जहां सामुदानिक भेरी थी वहीं पर आते हैं और वहां पहुंच कर सामुदानिक भेरी को बहुत ऊंचे-ऊचे स्वर से बजाते हैं ॥५॥
टीका-समस्त प्रकरण सरल है ॥५॥
मूल-तएणं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया-महया सद्देण तालि याए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा देवीओ उण भाणियव्वाओ जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अन्ने य बहवे राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ व्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया जहा विभवइड्ढिसक्कारसमुदएणं, अप्पेगइया हयगया जाव परिसवग्गरापरिक्खित्ता० जेणेव कण्हे वासदेवे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता करतल० कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धावेति। तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हस्थिरयणं कप्पेह, हयगयरहपवरजाव पच्चप्पिणंति ।