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________________ जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि तीर्थङ्कर की वाणी को गणधर ग्रंथों का रूप देते हैं। तीर्थङ्कर परमात्मा तो आत्म-कल्याण एवं स्वकल्याण के लिये धर्म का उपदेश करते हैं। वीतराग की वाणी भगवान महावीर की प्रथम देशना से ११ वेद विद्वान व उनका शिष्य - परिवार प्रभावित हुआ। भगवान महावीर ने उन विद्वानों को ११ गणधरों का नाम दिया। इनमें इन्द्रभूति गौतम तथा सुधर्मा को छोड़कर सभी गणधर भगवान महावीर के जीवन-काल में ही मोक्ष गति को प्राप्त हो गए थे। .. ५६६ ई. पू. दीपावली की रात्रि को जब श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ तो उसी रात्रि के मध्यकाल में गणधर गौतम इन्द्रभूति को केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ। गणधर इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के निर्वाण के बाद श्री-सघ के शास्ता बने ।। . जैन मान्यता है कि ११ गणधरों ने वाचना में बारह अंगों की रचना की थी। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक गणधर ने द्वादशांगो को अलग-अलग रचनायें को होंगी। आठ वाचनाएं तो गणधर गौतम के जीवन-काल में ही समाप्त हो गई । पांचवें गणधर सुधर्मा स्वामी की वाचना ही बच पाई जो वर्तमान काल तक बड़े लम्वे संघर्षों के बाद आंशिक रूप से उपलब्ध है। जैन आचार्यों ने आगमों की प्राचीन श्रुत परम्परा को स्थिर रखते हुए श्रुत-साहित्य के सम्पादन के लिये अनेक प्रयत्न किये जिन्हें जैन इतिहास में वाचना का नाम दिया गया है । वाचना का महत्व जैन इतिहास में वही है जो बोद्ध साहित्य में संगीति का है। . .. • वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम श्रुत को केवल श्वेताम्बर-परम्परा ही मानती है जबकि दिगम्बर-परम्परा इन अंगों को विलुप्त मानकर आचार्य श्री कुन्दकुन्द आदि आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगमों के समान स्वीकार करती है । प्रस्तुत इतिहास श्वेताम्बर आगम-परम्परा से सम्बन्धित है। दिगम्बर-परम्परा तो पूर्व ग्रन्थों और अंगों के नाम को ही मानती है। प्रथम वाचना - इस वाचना का समय मौर्य वंश के राजा सम्प्रति का समय है (वी. नि १६१)। उस समय मगध में भयंकर अकाल पड़ा अतः साधुओं को अनुकूल भिक्षा मिलनी कठिन हो गई। यह अकाल बड़ा भयंकर था। बारह वर्षों तक इसका प्रभाव रहा। इस समय श्रमण-संघ के पट्टाधीश आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी थे। समस्त साधुओं को कंठस्थ किए हुए अंग व पूर्व भूल चुके थे। ऐसे भयंकर समय में पाटलीपुत्र में वीर-निर्वाण संवत् १७६ को जैन श्रमणों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में हुई। उसमें सब साधु इकट्ठे हुए। उनमें से जितना जिसकी स्मृति में था उस १. कई पट्टावलियों में प्रथम पट्ट पर गणधर सुधर्मा को लिखा जाता है। [बत्तीस]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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