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________________ वर्ग-प्रथम] (१४८) [निरयावलिका तूणीर रखने से धनुष चढ़ाने से, धनुष की डोरी आदि के खींचने से, और शीशों उछालने से, भुजा आदि के ऊंचा करने से, हाथी घोड़ों आदि की जघांदि में बंधे घण्टा आदि जन्यध्वनियां करने से, वाद्य-यन्त्रों के वजने से बहुत ही ऊंचा उत्कृष्ट सिंहनाद यावत् शब्दों की कल-कल ध्वनियों से, समुद्र की भांति शब्द करते हुए, सर्व ऋद्धियों के साथ यावत् वाद्य-यन्त्रों के स्वरों के साथ, घोड़े वाले घोड़े वालों से, हाथी वाले हाथी वालों से, रथों वाले रथ वालों से, पैदल पंदल से परस्पर युद्ध करने लग गए ॥१०॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में दोनों सेनाओं के परस्पर युद्ध का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। दोनों तरफ की चतुरंगिणी सेना मैदान में आ गई। विभिन्न हथियारों से युद्ध होने लगा । युद्ध में उत्साह-वर्धक वाद्य-यन्त्र बजने लगे। इसमें एक बात स्पष्ट की गई है कि रथ वाले सैनिक रथ वालों से लड़ रहे थे, हाथी पर चढ़े, हाथी पर सवार सैनिकों व घोड़ों पर चढ़े घुड़ सवारों से परस्पर युद्ध करने लगे, पैदल सैनिक पैदल से भिड़ने लगे। यहां कुछ शब्द ध्यान देने योग्य हैं-मंगतिएहि फलएहि-इसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है मंगतिएहि त्ति हस्तपाशितैः, फलकादिभः-फलकादि से हाथ में पाश रूप बनाया हुआ । इस प्रकार वैशाली के मैदान में परस्पर दोनों सेनामों में घमासान युद्ध होने लगा ॥१०॥ उत्थानिका-अब सूत्रकार फिर इसी विषय में आगे कहते हैं __मूल-तएणं ते दोण्ह वि रायाणं अणीया णियगसामीसासणाणुरत्ता महंत जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवट्ट कप्पं नच्चंतकबधवार भीम रुहिरकद्दमं करेमाणा अन्नमन्नेणं सद्धिं झुझंति ॥१॥ . छाया-ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकस्वामिशासनानुरक्ते महान्तं जनक्षयं जनवधं जनप्रमर्व जनसंयर्तकल्पं नृत्यत्कबन्धवारभीमं रुधिरकर्दमं कुर्वाणो अन्योऽन्येन साद्धं युध्येते ॥६॥ पदार्थान्वय:-तएणं-तत्पश्चात्, णं-वाक्यालंकार, ते दोण्ह वि रायाणं - उन दोनों राजाओं की, अगोया-सेनायें, णियासामीसासरत्ता-अपने-अपने स्वामी के अनुशासन में रहते हुए (वफादारी से), महया-बड़ी संख्या में, जणक्खयं - जनों को क्षय कर; जणवहं-जनों का वध कर, जणप्पमई-जनों का प्रमर्दन कर उन्हें कुचल, जणसंवट्टक-जन-संहार के समान, नन्चंतकबंधवारभीम-शिर के बिना घड़ों के नाचने के कारण भयानक बनी युद्ध भूमि में, . हहिरकद्दमं करेमाणा-खून से मैदान में कीचड़ से भरते हुए, अनमनेणं सद्धि झुन्झति-परस्पर युद्ध करने लगे।
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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