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________________ निरयावलिका) ( २४६ ) विग-चतुर्थ सुकुमाला०-सुकोमल थी, किन्तु वंझा-बांझ थी, अवियाउरी-संतान उत्पन्न करने के अयोग्य थो, जाणकोप्परमाता-खाली गोद वाली अर्थात् आनु की ही माता, यावि होत्था-थी, तएणंतत्पश्चात्, तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए-उस सुभद्रा सार्थवाही को, अन्नया कयाइ-अन्य किसी दिन, पन्चरत्तावरत्तकाले-अर्धरात्रि के समय में, कुडुबजागरियं-कुटुम्ब जागरण के समय, इमेयारूवेइस प्रकार का, जाव-यावत्. संकप्पे-संकल्प, समुप्प जित्था-उत्पन्न हुआ, एवं खल-निश्चय ही. अहं-मैं, भद्देण सत्थवाहेण सद्धि-भद्र सार्थवाह के साथ, विउलाई-विपुल, भोगभोगाई-भोगों उपभोगों को, भुजमाणी-भोगती हुई, विहरामि-विचर रही हूं, नो चेव णं- इस पर भी, अहं दारगं व दारियं वा न पयामि-मैंने किमी बालक व बालिका को उत्पन्न नहीं किया, तं धन्नाओ णं अम्मगाओ-वे माताएं धन्य हैं, जाब-यावत्, सलद्धे--सुलभ हैं, णं तासि अम्मगाणं-उन माताओं ने ही, मण यजम्मजीवियफले-मनुष्य-जन्म का फल पाया है, जासि-जिन्होंने, मन्ने नियकुच्छिसभूयगाई-अपनी कुक्षि से उत्पन्न हुई संतान को, थणदुद्धलुद्धगाई-स्तनपान की इच्छक हैं. महुरसमुल्लागाणि-उन बच्चों के मधुर स्वर सुनती हैं, मंजुल (प्रम्मण) जंपियाणि-उन बच्चों के मनोहर वाक्य सुनती हैं और, थणमूलकक्खदेसभाग-उन बच्चों को अपने स्तनमूल में उठा-उठा कर अर्थात् छाती से लगाकर, अभिसरमाणगाणि पण्हयंति -घूमती हैं, पणो य–तथा, कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि-कमल तुल्य कोमल हाथों से, गिहिऊणं-ग्रहण कर, उच्छंगनिवेसियाणि-अपनी गोद में बिठाती हैं, देति-देती हैं, समुल्लावए-समुल्लाप-मीठे वचनों से, सुमहुरे-मीठे, पुणो पुणो-बार बार, मम्मणप्पभाणिए-मनोहर लोरियां बच्चों को देती हैं, अहं णं-मैं, अधण्णाअधन्य, अपुण्णा-पुण्य हीन, अकयपण्णा-पूर्व जन्म के पुण्य उपार्जन से रहित हूं, और एत्तो एगमविएक भी सन्तति को, न पत्ता--नहीं प्राप्त किया, ओहय०- नजर झुका कर, जाव-यावत्, झियाइ-आत ध्यान अर्थात् दुःख भरा जीवन यापन करने लगी ।।३।। मूलार्थ-भगवान महावीर ने बताया कि इस प्रकार, हे गौतम ! उस काल, उस समय में वाराणसी नाम का एक नगरी थी, वहां आम्रशालवन नामक चैत्य था, उस वाराणसी नगरी में भद्र नाम का एक सार्थबाह रहता था, जिसकी सुभद्रा नामक भार्या थी। वह सुकोमल थी; किन्तु वह बांझ थी, संतान उत्पन्न करने के अयोग्य थे, उसकी गोद खाली थी, वह जानुकूर्परमाता थी अर्थात् सोते समय उसके उदर के साथ जान ही होता था, कोई बालक नहीं, तत्पश्चात् किसी दिन अर्धरात्रि के समय, कुटम्ब जागरण करते हुए, उसके पन में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए मैं (वर्षों से) निश्चय ही भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगों-उपभोगों का सेवन करते हुए जीवन-यापन कर रही हूं, परन्तु मेरे घर में एक भी बालक या बालिका का जन्म नहीं हुआ । वे माताएं धन्य हैं, सुलभ हैं। उन माताओं ने ही मनुष्य-जन्म का फल पाया है, जिन्होंने अपनी कुक्षि से
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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