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________________ वर्ग चतुर्थ ] ( २५०) [निरयावलिका संतान उत्पन्न की है, संतान को दूध पिलाया है, अपने बच्चों के मधुर स्वर सुने हैं, मनोहर वाक्य सुने हैं, बच्चों को छातो से लगा कर घुमाती हैं; फिर बच्चों के कमल तुल्य कोमल हाथों को पकड़ कर बच्चे को गोदो में बिठाती हैं. अपने मीठे मीठे वचनों व समुल्लापों के साथ बार-बार मनोहर लोरियां देती हैं। अहो ! मैं कितनी अधन्य हूं, पुण्यहीन हूं, पूर्व जन्मों के शुभ कामों के पुण्य से रहित हूं कि मेरी एक भी सन्तान नहीं है। इस प्रकार (वह) नजर झुका (शोश निवा कर) यावत् आर्तध्यान करती है, दु:ख भरा जीवन-यापन करती है ।।३।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में मां की संतान के प्रति ममता का मनोवैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया गया है। सुभद्रा हर बांझ स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रही है। सांसारिक मनुष्य पुत्र प्राप्ति को ही सुख का मार्ग मानते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि पुत्र ही वंश-परम्परा का प्रतिनिधि है। इसीलिये सुभद्रा बहुत दुःखो है, क्योंकि वह बांझ है, संतान उत्पन्न करने के अयोग्य है। यह सूत्र माता की संतान के प्रति सहज चिंता का चित्रण भी करता है। वंझा अवियाउरी जाण कोप्परमाया यावि होत्या-बह . सुभद्रा केवल वंध्या ही न थी, यदि कोई संतान पैदा भी हो जाती तो वह मृतक होती थी, इस कारण वह सुभद्रा सन्तान-हीन ही थी। रात्रि को सोते समय उसके उदर के साथ केवल जानु का ही स्पर्श होता था, न कि बच्चे का। इस लिए उसे "जानकपर माता" कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में सुभद्रा उन माताओं के सुख का चिंतन कर रही है जो बच्चों को दूध पिलाती हैं, गोद में उठा कर छाती से लगाती हैं, मीठे वचनों से उन्हें लोरियां देती हैं। दूसरी बात यह है कि किसी पूर्व कृत अशुभ कर्म के कारण उसे बच्चे का मुंह देखना नसीब नहीं हुआ। इस सूत्र में सुभद्रा अपने आप को कोसती है। बांझ का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है।। 'बंझा' त्ति अपत्यकलणलाभेक्षया निष्फला अवियाउरि त्ति प्रसवानन्तरमपत्यमरणो वापि फलतो वन्ध्या भवति, अत उच्यते-अवियाउरि त्ति अजिजन शोलाऽपत्यानाम् तदेवाहं । उत्थानिका:-अब आगे नगरी में सुवता आर्या के आगमन का वर्णन व सुभद्रा द्वारा साध्वी जीवन ग्रहण करने का उल्लेख शास्त्रकार ने विस्तार पूर्वक किया है:मूल--तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वयाओ णं अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणास
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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