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________________ निरयावलिका सूत्रम् ] [वर्ग-प्रथम कठिन व्रतों को धारण करने वाले इतना ही नहीं किन्तु वे घोर तप के करने वाले थे, अतः उनके शरीर में विपल तेजोलेश्या उत्पन्न हो रहा थो, किन्तु उन्होंने उस लेश्या को संक्षिप्त किया हआ था इसलिए वृतिकार ने निम्नलिखित पद दिया है “संखित विउल ते उलेस्से' संक्षिप्ता-शरीरान्तविलीना विपुला-अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभावा तेजोलेश्या (यस्य सः)। ____ अर्थात् अनेक कोसों तक रहने वाली वस्तु को भी भस्म कर देने की शक्ति वाली तेजोलेश्या को उन्होंने तपोबल से अपने अन्तर में ही आत्मसात् कर रखा था। ___ इस कथन से यह भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि साधु में तपोजन्य शक्ति होने पर भी उस शक्ति का प्रयोग करने से बचते रहना चाहिये । वह जम्बू अनगार आर्य सुधर्मा अनगार के समीप ऊंचे जानु कर अर्थात् उत्तान आसन पर बैठकर मुख को नीचे झुकाए हुए ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट होकर आत्म-ध्यान में लीन रहते थे, इसलिए वृतिकार ने कहा है कि- "झाणकोट्टोवगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो यथा हि कोष्ठक धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवति एवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठमनुप्रविश्य इन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः । ___ इस कथन का अभिप्राय यह है कि जैसे कोठे में डाला हुआ अन्न इधर-उधर फैलता नहीं है इसी प्रकार आर्य जम्बू स्वामो ने ध्यान रूपो कोठे में समस्त वृत्तियों को एकाग्र कर दिया था, अतः वे स्थिर-ध्यान थे। ___ इस कथन से यह भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि साधु-वृत्ति का मुख्य उद्देश्य ध्यानस्थ होना ही है । सूत्र कर्ता ने “अदूर-सामंते" पद दिया है, इसका भाव यह है कि गुरु की आशातना न हो इस बात को ध्यान में रखकर शिष्य गुरु के पास उचित स्थान पर बैठे। जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं - "प्रदूरसामंते' ति दूरं -विप्रकर्षः सामन्तं समीपमू, उभयोरभावोऽदूरसामन्तं (तस्मिन्) नातिदूरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः । अर्थात् अति दूरी और अति समीपता न रख कर यथोचित स्थान पर वे आकर बैठते थे। इस प्रकार गुणों से पूर्ण युक्त होते हुए श्री जम्बू अनगार विचरण किया करते थे। सूत्रकर्ता ने 'जाव' अर्थात् यावत् शब्द से उनमें सभी साधूचित गुणों की विद्यमानता प्रदर्शित की है। . साधु के योग्य समस्त गुणों का विस्तृत वर्णन “व्याख्या-प्रज्ञप्ति" आदि सूत्रों में वर्णित किया गया है। . जब आर्य सुधर्मा गुणशील चैत्य के उद्यान में पधारे तो परिषद् दर्शन करने आई। सभी पांच अभिगमपूर्वक आये। पांच अभिगम इस प्रकार हैं १. धर्म-स्थान में न पहिनने योग्य पुष्प-माला आदि सचित द्रव्यों का त्याग । २. वस्त्रआभूषण आदि अचित द्रव्यों का त्याग, ३. एक बिना सिला वस्त्र, ४. गुरु पर दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ कर चलना, ५. मन को एकाग्र करना।
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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