SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग - प्रथम ] [ निरयावलिका सूत्रम् उत्थानका - तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैंमूल - तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जम्बूणामं अणगारे समच उरंसठाण पंठिए, जाव० संखित्त-विउलतेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू जाय विहरई ॥३॥ ( ६ ) छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मानगारस्य अन्तेवासी जम्बूनामानगारः समचतुरस्रसंस्थान - संस्थितः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः आर्य सुधर्मस्य अनगारस्य अदूरसामन्तम् उर्ध्वजानुः यावत् विहरति । पदार्थान्वयः -- तेणं कालेणं - उस काल - अवसर्पिणी काल के चतुर्थ विभाग, तेणं समए णं - उस समय वहां जिस समय श्री सुधर्मा स्वामी विराजमान थे, अज्जसुहम्मस्स - आर्यसुधर्मा स्वामी, अणगारस्स - अनगार के, अन्तेवासी - शिष्य, जम्बूनामं अणगारे - जम्बू नामक अनगार, (जो ) समचउरंस - सम चतुरस्र (चौरस), संठाणसंठिए - संस्थान से संस्थित थे, जाव - यावत् संखित्तविउलते उस्से - संक्षिप्त की हुई है विपुल तेजोलेश्या युक्त, अज्जतुहम्मस्स-आर्य सुधर्मा, अणगारस्स - अनगार के, अदर सामन्ते-न अति दूर न अति. समीप, मर्यादा - पूर्वक भूमि पर, उड्नुंजाणू – ऊर्ध्व जानु, जाव - यावत् विहरइ - विचरते हैं । मूलार्थ – उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के शिष्य जम्बू नाम के अनगार जो समचतुरस्र-संस्थान से युक्त (और) यावत् संक्षिप्त की हुई विपुल तेजोसे युक्त थे, आर्य सुधर्मा अनगार के समक्ष मर्यादा - पूर्वक भूमि पर स्थित हो, ऊंचे जानु कर यावत् जैसे कि विधान है वैसे विचरते अर्थात् आचरण करते हैं । टीका- - इस सूत्र में प्रार्य सुधर्मा स्वामी के शिष्य जम्बू स्वामी का वर्णन किया गया है। जैसे कि आर्य सुधर्मा स्वामी के सुशिष्य अनगार आर्य जम्बू जो समचतुरस्र - संस्थान से संस्थित थे जो " वज्जरि सहनारायसंघयणे कणगपुलगनिगसपम्हगोरे " अर्थात् वज्र ऋषभनाराच संहनन से युक्त तथा कनक-पट्ट रेखा लक्षण वाले थे, जैसे कि वृत्तिकार का कथन है । कनकस्य- सुवर्णस्य 'पुलग' इति यः पुलको - लवः तस्य यो निकष :- कणकपट्टरेखा लक्षणः तथा 'पम्हेति' पद्मगर्भः तद्वत् यो गौरः स तथा वृद्धव्याख्या तु कनकस्य न लोहादेर्यं पुलकः - सारो वर्गातिशयः तत्प्रधानो यो निकषो - रेखा तस्य यत् पक्ष्म - बहुलत्वं तद्वद्यो गौरः स कनकपुलक निकषपक्ष्मगौरः । अर्थात् जिस प्रकार कनकपट्ट (काली कसौटी) पर रेखा होती है, जिस प्रकार पद्मगर्भ होता है, तद्वत् उनका शरीर था तथा उग्र तप, तप्त तप, दीप्त तप, प्रधान परीषहों के जीतने वाले
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy