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________________ निरयावलिका सूत्रम् । (५) [वर्ग-प्रथम स्वामी वहां आये, उनका वर्णन जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में श्रमण-केशी कुमार जी का किया गया है ठीक उसी प्रकार जान लेना चाहिये। वे गुणों से युक्त ५०० मुनियों के साथ अनुक्रमता पूर्वक विचरते हुए राजगृह नगर के बाहर गुणशैल नामक चैत्य में साधु के योग्य उपकरणों को आज्ञा लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को विशुद्धि करते हुए विचरने लगे। ___ कुछ हस्तलिखित प्रतियों में "चरे माणे" के अनन्तर "गामाणुगाम दुइज्ज माणे” पाठ भी प्राप्त होता है जिसकी आचार्य श्री चन्द्र सूरि विरचित निरयावलिया सूत्रवृत्ति में इस प्रकार व्याख्या की गई है। जैसे कि “गामाणगाम दुइज्जमाणे" ति ग्रामानुग्रामश्च विवक्षितग्रामादनन्तरं ग्रामो ग्रामानुग्रामं तत् द्रवन् - गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राम मनुल्लंघ्यन्नित्यर्थः, अनेनाप्रतिबद्धं विहारमाह। तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह सुहं सुहेणं विहरमाणे' सुखं सुखेन -शरीरखेदाभावेन संयमाऽऽवाधाभावेन च विहरन् प्रामादिषु वा तिष्ठन् ।” इसका अभिप्राय यह है कि जिस ग्राम से वे चलते थे उस ग्राम से दूसरे अभीष्ट ग्राम तक जो बीच में छोटे ग्राम पड़ते थे उनमें भी वे उपदेश देते हुए आगे बढ़ते थे, और वह भी बिना थकावट के सुख पूर्वक । इस कथन से यह भली-भान्ति सिद्ध हो जाता है कि विहार-क्रिया में प्रवृत्त होते हुए, विनय पूर्वक चलना चाहिए और प्रत्येक ग्राम में उपदेश करते हुए सफल विहार-चर्या करनी चाहिए । 'सहं सहेणं' इस पद से यह सिद्ध किया गया है कि जिस प्रकार शरीर और संयम में कोई वाधा न हो उस प्रकार विचरना चाहिए। सूत्र-कर्ता ने यहां सुधर्मा जी की केशी कुमार श्रमण से उपमा दी है जिसका भाव यह है कि प्रार्य सुधर्मा में समग्र साधूचित गुण तो थे ही, इसके साथ वे चतुर्दश पूर्वो के पाठी और चार ज्ञान से युक्त भी थे। जैसे कि वृत्तिकार का कथन है ... "चोद्दसपुवी-चउनाणोवगए' चतुर्ज्ञानोपयोगतः केवलवर्जज्ञानयुक्तः। (श्रमण श्रेष्ठ केशी कुमार का विस्तृत वर्णन राज प्रश्नीय सूत्र में विस्तार से किया गया है)। एक हस्तलिखित प्रति में निम्ननिखित पाठ भी प्राप्त हुआ है जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए नामं चेइय जेणेव असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए तेणेव उवागए, अहापडिरूबं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव विहरइ।। ___ इस पाठ का भाव भी उपर्युक्त पक्तियों से मिलता-जुलता होने से हम उसकी पुनः व्याख्या नहीं कर रहे। तत्पश्चात् नगर को परिषद् श्रद्धालु जनता धर्म-कथा सुनने के लिए उस बाग में आई, फिर धर्म-कथा सुन कर अपने-अपने स्थानों पर चली गई। . इस विषय का विशद वर्णन विस्तार पूर्वक जानने के लिये जिज्ञासुओं को औपपातिक सूत्र का स्वाध्याय करना चाहिए।
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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