SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ वर्ग-तृतीय पढमं छटुक्खमाणं - पहला षष्ठक्षपण-दो दिन का उपवास, उबसंपज्जिताणं - धारण करके, हिरइ - विहरण करने लगा ||८|| निरयावलिका ) ( २११ ) मूलार्थ – उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय रात्रि के मध्य में, कुटुम्ब (की चिन्ता में ) जागरण करते हुए उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ "निश्चय ही मैं सोमिल ब्राह्मण वाराणसी नगरी के उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूं । तत्पश्चात् मैंने व्रतों का अराधन किया फिर यूप या यज्ञ-स्तम्भ स्थापित किए, तत्पश्चात् मैंने वाराणसी नगरी के बाहर अनेकों आमों के बाग, फूलों के बाग लगवाए हैं । अब मेरे लिए यही श्रेयस्कारी होगा कि प्रातः सूर्योदय होते ही मुझे बहुत से लोहे केकड़ा और कड़छियां, ताम्रिक (परिव्राजकों के पहनने का एक उपकरण ), तपस्वियों के दैनिक प्रयोग में आने वाले भण्डोपकरण बनवा करके, विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम- चारों प्रकार का भोजन तैयार करवाऊं और मित्रों और समान कुलवालों को आमंत्रित करके उन मित्रों एवं समान जाति के लोगों, रिश्तेदारों को पर्याप्त भोजन करवा करके, उनका सन्मान सत्कार करू । फिर बड़े पुत्र को घर का दायित्व संभाल कर उन मित्रों एवं सम्बन्धियों से पूछ कर तापस-दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा प्राप्त । फिर बहुत से कड़ाहों, कड़डियों व तांबे के बर्तनों को ग्रहण करके, गंगा के किनारे पर रहने वाले वानप्रस्थों के पास जाऊं । फिर अग्निहोत्री ( वानप्रस्थ तापसों का एक वर्ग) वल्कलधारी वानप्रस्थी, भूमि पर सोने वाले वानप्रस्थ, यज्ञ करने वाले तापस, श्राद्ध करनेवाले वानप्रस्थ, पात्र धारण करने वाले वानप्रस्थ, हुम्बडकष्ट ( वानप्रस्थी तापसों की एक जाति) दांतों से चबाकर खाने वाले तापस, गोता लगाकर स्नान करने वाले तापस, बार-बार हाथ से पानी उछाल कर स्नान करने वाले तापस, पानी में डुबकी लगाकर स्नान करने वाले, मिट्टी से शरीर को मल कर स्नान करनेवाले, गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले, गंगा के उत्तरी तट पर रहने वाले, शंख बजाकर भोजन करने वाले, मृग को मार कर उसके मांस से जीवन व्यतीत करनेवाले, हाथी के समान स्नान करके शरीर पर भस्म आदि लगा कर • जीवन बिताने वाले, दण्ड को ऊंचा रखकर चलने वाले दिशाओं को जल से सींचकर
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy