________________
( २१० )
वर्ग - तृतीय ]
वल्कलवासस - वृक्षों की छाल को धारण करने वाले, बिलवासिणो-विलवासी - भूमि के नोचे बिल जैसे स्थान में रहने वाले, जलवा'सणो-जलवासी - जल में ही रहने वाले दबखमूलियावृक्षमूलक -- वृक्ष के मूल में रहने वाले, अंबुभक्खिणो - केवल जल का सेवन करने वाले, वायभक्खिणो - वायुभक्षी - केवल वायु का सेवन करने वाले, सेयालभविखणो- शैवालभक्षी - केवल शैवाल नामक जलीय घास का सेवन करनेवाले, मूलाहारा - मूलाहार - मूल - जड़ों का सेवन करने वाले, कंदाहारा - कन्द का सेवन करने वाले (गूदेदार बिना रेशे की जड़, जमीकन्द, शकरकन्द, गाजर, लहसुन आदि) का सेवन करने वाले, तयाहारा - त्वचाहारा-नीम आदि वृक्षों की त्वचा का सेवन करने वाले, पत्ताहारा- पत्राहार- वृक्षों के पत्तों का सेवन करने वाले, पुष्पाहारा - पुष्पाहारा - गुलाब आदि फूलों का सेवन करने वाले, फलाहारा - फलाहार - वे. ले आदि फलों का सेवन करने वाले, बीयाहारा - बीजाहारा बीजों का सेवन करने वाले, परिसडिय - कंद-मूल-तय- पत्त- पुप्फ- फलाहारा - परिशटित- अर्थात् सड़े हुए कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प भौर फलों का सेवन करने वाले, जलाभिसेय - कडिण गायभूया - जलाभिषेक - जल hi अभिषेक अर्थात् अधिक सिंचन से जिनका शरीर कठोर हो गया है ऐसे तापस, आयावणाहि पंचग्गितावेहि- सूर्य की आतापना और पञ्चाग्नि-तप के कारण, इंगालसोल्लियं - प्रङ्गारशौल्य अर्थात् अङ्गारों पर रक्खे शूल से पकाये हुए मांस एवं कंदुसोल्लियं - कन्दुशील्य अर्थात् चावल आदि भूनने का पात्र कन्दु होता है उसमें घृत डाल कर शूल पर पकाए गए मांस के, पिव- समान, अध्याणं करेमाणा - अपने शरीर को कष्ट देते हुए, विहरति - जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तत्थ — उनमें, जे ते जो तापस, - वाक्य सौन्दर्यार्थक है, दिसापोविखयादिशाप्रोक्षक अर्थात् दिशाएं प्रोक्षित कर जीवन-यात्रा चलानेवाले, तावसा - तापस हैं, तेसि अतिए दिसापोक्खियत्ताए - उन दिशाप्रोक्षक तापसों के पास अर्थात् दिशाप्रोक्षक के रूप में तापस बनना चाहता हूं, पव्वइत्तए - प्रव्रजित होने के लिये, पव्वइए वि य णं समाणे - प्रव्रजित हो जाने पर, इमं एयारूवं - मैं इस प्रकार का अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि - अभिग्रह - प्रतिज्ञा विशेष ग्रहण करूंगा, कप्पई मे जावज्जीवाए - जीवन पर्यन्त मेरा नियम रहेगा कि मैं, छट्ठ छट्टणं- बेले बेले तपस्या करता हूं अणिक्खितेणं - बिना किसी अन्तर के अर्थात् लगातार, यह तपस्या, दिसाचक्कवालेणं तवो कम्मेणं- दिक्-चक्रवाल तपस्या करता हुआ, सूराभिमुहस्स - सूर्य की ओर मुख करके, उड्ड बाहाए पगिज्झियं सूर्य के सामने भुजाएं उठा उठा कर, णस्स विहरितए - आतापना भूमि में आतापना ग्रहण करता रहूंगा, इस प्रकार सोचकर मन में चिन्तन करता है, दिक्चक्रवाल- तपस्या का निश्चय कर लेता है, संपेहित्ता - ऐसा निश्चय कर लेने के अनन्तर काल यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर सुबहु लोह - जाव विसापोक्खियत्तावसत्ताए - बहुत से लोहे के कड़ा यावत् अन्य ( पूर्व वर्णित ) सामग्री लेकर दिशाप्रोक्षक तापस के पास आकरें, पव्व इए - प्रव्रजित हो जाता है, पव्वइए वि य णं समाणे - प्रव्रजित हो जाने के पश्चात्, इर्म एयारूवं अभिग्गहं - इस प्रकार का अभिग्रह ( प्रतिज्ञा विशेष ), अभिगिन्हित्ता - धारण करके,
-
आयावण भूमीए मायावेमात्ति कट्टु एवं संपेहेइके द्वारा जीवन बिताने
कल्लं जाव जलते - प्रातः -
[निरधावलिका
-