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________________ निरयावलिका) (२०९) [वर्ग-तृतीय वाक्य-सौन्दर्यार्थ क है, मए-मैंने, वयाई-व्रतों का, चिण्णाई-आराधन किया, जावयावत्, जूवा निक्खित्ता-यूप-यज्ञस्तम्भ या स्तम्भ-विशेष स्थापित किए, तए-उस के बाद, णं-वाक्य सुन्दरता के लिए है, मए-मैंने, वाणारसीए णयरीए-वाराणसी नगर के, बहियाबाहिर, बहवे अनेकों, अंबारामा-आमों के बाग, जाव-यावत्, पुप्फारामा य-और फलों के बाग, रोवाविया-लगवाए हैं, तं-सो, खलु-निश्चय ही, मम सेयं-मेरे लिए यही श्रेष्ठ है, इयाणि-अब, कल्लं-प्रात:काल ही, जाव-यावत्, जलते-- सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर, सुबहु -बहुत से, लोह-कडाह-कडुच्छयं-लोहे के कडाहे और लोहे की कड़छी-चमची आदि डोई (प्राकृत शब्द-महार्णव कोष), तंबियं-ताम्रिक (परिव्राजकों के पहनने का एक उपकरण); तावास-भंड-तपस्वियों के उपयोग में आने वाले भाण्ड-पात्र, घडवित्ता-बनवा कर, विउलंविपुल-पर्याप्त, असणं-अशन- अन्न, पाणं-पेय पदार्थ, खाइम-खादिम-बादाम और पिस्ते आदि मेवे, साइम-मूख को स्वादिष्ट बनाने वाले चर्ण आदि पदार्थ बनवा कर. मित्त- मित्र, नाइ-समान जाति आदि वाले लोगों को, आमंतित्ता-आमंत्रित करके, तं मित्त राइणियगउन मित्रों, समान जाति वालों तथा निजक-आत्मीय, अपने सम्बन्धी जनों को, विउलेणंपर्याप्त, असण-भोजनादि से, नाव समाणित्ता-यावत् सम्मानित करके, तस्सेव मित्त जावउन मित्र आदि के सामने, जेट्टपुत्तं-ज्येष्ठ पुत्र, बड़े लड़के को, कुडुंबे ठावेत्ता-कुटुम्ब का दायित्व सम्भाल कर, त मित्तनाइ जाव-उन मित्र आदि सम्बन्धियों को, आपुच्छित्ता-पूछ कर, सुबहु लोह-कडाह-कडच्छ-यं-बहुत से लोहे के कडाहे और कड़छियों को, तंबियं-ताम्रकों को, तावसभंडगं-तापसों के पात्रों को, गहाय-ग्रहण करके, जे-जो, इमे-ये, गंगाकूला-गंगा के किनारे पर रहने वाले, वाणपत्था तावसा-- वानप्रस्थ-वन में रहने वाले तपस्वी, भवंति-विराजमान हैं, तंजहा-जैसे कि, होत्तिया-अग्निहोत्री । वानप्रस्थ तापसों का एक वर्ग ], पोत्तिया-- वस्त्रधारी बानप्रस्थ, कोटिया-भूमि पर शयन करने वानप्रस्थ, जन्नई-यज्ञ अर्थात् यज्ञ करने वाले • तापस, सट्टई-श्राद्ध करने वाले बानप्रस्थ, थालई-पात्र धारण करने वाले बानप्रस्थ, हुबउटाहुम्बउष्ट [वानप्रस्थ तापसों की एक जाति] दंतुक्खलिया-दांतों से चबाकर खाने वाले तापस, उम्मज्जगा-उन्मज्जक उन्मज्जन (गोते) लगाकर ही स्नान करने वाले तापस, संमज्जगासम्मज्जक बार-बार हाथ से पानी को उछाल कर स्नान करने वाले, निमज्जगा-निमज्जक पानी में डूबकर स्नान करने वाले, संपक्खालगा-संप्रक्षालक-मिट्टी मल कर शरीर का स्नान करने वाले । दक्षिणकला-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले, उत्तरकूला - गंगा के उत्तर तट पर रहने वाले, संखधमा-शङ्खध्मा-शंख बजा कर भोजन करने वाले, कलधमा- तट पर स्थित होकर आवाज करते हुए भोजन करनेवाले, मियलुद्धया-मृग को मार कर उसी के मांस से जीवन व्यतीत करने वाले, हस्थितावसा-हस्ति-तापस-हाथी की तरह स्नान करके शरीर पर भस्म आदि लगा कर जीवन विताने वाले, उघडा --उद्दण्ड-डण्डे को ऊंचा उठाकर चलने वाले, दिशापोक्खिणोविशाप्रोक्षी-दिशा को जल से सींचकर उस में पुष्प फल आदि चुन कर रखने वाले अथवा, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दिशाओं को देखकर तपस्या करने वाले तापस, वकवासिणो
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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