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वर्ग-चतुर्थ ]
( २६३)
[ निरयावलिका
अबश्य पूर्ण हो जाती है।
वह पूर्व जन्म में निदान नहीं करेगी कि यदि मेरा तप संयम सफल है तो मुझे भी बहुत सी सन्तति प्राप्त होनी चाहिये। केवल वह दसरों के बच्चों को देखकर खिन्न होग, जो उसके
के हृदय की सन्तानेच्छा को प्रकट करेगी। अतः सोमा को बत्तीस बाल बच्चे प्राप्त हुए जिससे वह अधिक सन्तति होने के दुख से परिचित होकर "अधिक सन्तान दुःखदायी होती है" इस सत्य को समझ कर आर्याओं से पुनः प्रवजित होने के भाव प्रकट करेगी ॥२०॥
मूल-तएणं सा सोमा माहणी जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवागया करतल० एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया! अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए जाव अभिरुचिए, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्भणुन्ना सुब्वयाणं अज्जाणं जाव पच्वइत्तए। तएणं से रट्ठकूडे सोमां माहणीं एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! इदाणिं मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाहि । भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धि विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयाहि ॥२१॥
छाया-तता खलु सा सोमा ब्राह्मणी यत्रैव राष्ट्रकूटस्त्रत्रव उपागता करतल० एवमवादीत्एबं खलु मया देवानुप्रिया! आर्याणामन्तिके धर्मो निशान्त; (श्रुतः) सोऽपि च खलु धर्म इष्टो यावद अभिरुचितः, ततः खलु अहं देवानुप्रिय ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सुव्रतानामार्याणां यावत् प्रवजितुम् । ततः खलु स राष्ट्रकूटः सोमा ब्राह्मणीमेवमवादोत्-मा खल देवानुप्रिये ! इदानीं मुण्डा भूत्वा यावत् प्रव्रज, भुङ क्ष्व तावद् देवानुप्रिये ! मया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान्, ततः पश्चाद् भुक्तभोगा सुव्रतानामार्याणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रवज ॥२१॥
पदार्थान्वयः-तएणं सा सोमा माहणी-तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी, जेणेव रतुकडेजहां पर राष्ट्र कूट होगा, तेणेव उवागया-वहीं पर आयेगी, करतल०-हाथ जोड़ कर, एवं वयासी-इस प्रकार बोलेगी, एवं खलु मए देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय ! मैंने निश्चय ही, अज्जाणं अंतिए-आर्याओं के पास जाकर, धम्मे निमंते-धर्म का श्रवण किया है, से वि य गं धम्मे इच्छिए-उसी धर्म को मैं (ग्रहण) करना चाहती हूं (क्योंकि), जाव अभिरुचिए-वही धर्म मेरी रुचि के अनूकुल है, तएणं अहं देवाणुप्पिया-इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं, तुम्भेहि अन्भणन्नाया