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निरयावलिका]
(२९२)
[वर्ग-चतुर्थ
हो अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होती है । वह जल्दी ही अपने आसन से उठ खड़ी होती है और उठ कर सात आठ कदम पीछे हटती है, पीछे हटकर उन्हें वन्दना - नमस्कार करती है और उन्हें आहार-पानी आदि का लाभ देती हैं, लाभ देकर वह आर्याओं से इस प्रकार निवेदन करेगी - "हे आर्याओं ! मैं निश्चित ही अपने पति राष्ट्रकूट के साथ अनेक विध भोगों को भोगते हुए प्रतिवर्ष दो बच्चों को जन्म देती रही हूं, इस प्रकार मैंने सोलह वर्षों में बत्तीस बच्चों को जन्म दिया है । इस प्रकार मैं उन बहत से बच्चों के (जिन में से) कुछ चित्त होकर सोए रहते हैं; कुछ मलमूत्र त्यागते रहते हैं; उनके मूल-मूत्रादि से लिपटी उन जन्म से ही दुखदायी बच्चों के कारण अपने पति राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोगों का सुख भोगते हुए मैं अपने जीवन का सुख नहीं प्राप्त कर पाती । इसलिये हे आर्याओं ! मैं यह चाहती हूं कि मुझ सोमा ब्राह्मणी के लिये वह सर्वथा अद्वितीय तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म बतलायें।" तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी उन साध्वियों के पास से धर्म-तत्व की व्याख्या सुनेगी
और सुनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए अपने हृदय से उन आर्याओं को बन्दना नमस्कार करेगी और वन्दना नमस्कार करके वह इस प्रकार निवेदन करेगी कि हे आर्याओं मैं केवली प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा रखती हूं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन का आदर करती हूं, आजसे जैसे आप कहेंगी मैं वैसा ही करूंगी, क्योंकि वही सत्य है । हे आर्याओं में जाकर राष्ट्रकूट से पूछती हूं (आज्ञा लेती हूं) आज्ञा लेकर तब मैं आपके सान्निध्य में आकर मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करूगी।
(आर्याय उत्तर देंगी) हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो (वैसा करो); शुभ काम में प्रमाद नहीं करना चाहिये । तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं को वन्दना नमस्कार करेगी और वन्दना नमस्कार करके उन्हें वापिस लौटने के लिये विसर्जित करेगी ॥२१॥
टीका-इस सूत्र से यह संकेत प्राप्त होता है कि गृहस्थ के घर में जब भी साधु-साध्वियां आयें उन्हें वन्दना-नमस्कार कर आहार-पानी का लाभ अवश्य देना चाहिये। सोमा उस समय अत्यन्त खिन्न थी तब भी वह श्रद्धा-पूर्वक साध्वियों को आहार-पानी देकर पुण्यार्जन. करती। शुद्ध हृदय से श्रद्धा-पूर्वक आहार-पानी देने से गृहस्थ के हृदय में जो भी कामना होती है वह