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निरग्रावलिका ]
[ वर्ग - प्रथम
( १२६ )
"होकर विचरता है । इस समाचार के प्राप्त होने पर मैंने सेचनक गन्धहस्ती और अठारह ड़ियों वाले हार के लिये दो दूत भेजे । उनको चेटक राजा ने प्रतिषेधित कर दिया, केवल इतना ही नहीं, मेरे तीसरे दूत को तिरस्कार करके अपद्वार से बाहर निकलवा दिया, अतः हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही हमें चेटक राजा के साथ युद्ध के लिये सुसज्जित होना श्रेयस्कर है ।। ७५ ।।
टीका - तत्पश्चात् कोणिक राजा ने अपने भाइयों को अपने दूत के साथ राजा चेटक द्वारा किये गए व्यवहार का वर्णन किया है। दूत से किये अभद्र व्यवहार को सुनकर कोणिक क्रोधित हो गया था. उसने अपने दस भ्राताओं कालादि को निमन्त्रण दिया। कोणिक राजा ने वेहल्ल कुमार के वैशाली पहुचने की सूचना दी और साथ में कहा कि बेहल्ल कुमार हमारे राज्य के सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार भी ले गया है। मैंने राजा चेटक को समझाने के लिये दो दूत भेजे, पर राजा चेटक नहीं माना। अंत में मैंने तीसरे दूत को भेजा। जिसके साथ चेटक राजा ने अभद्र व्यवहार करते हुए, उसे अपद्वार से बाहर निकलवा दिया, इसलिए हमें युद्ध के लिये तैयार हो जाना चाहिए । राजा कोणिक के इन शब्दों से उस का मनोगत भाव प्रकट होता है ।
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सेयं खदेवापिया ! अम्हं चेडगस्स रनो जुद्धं गिव्हित्तए - इस संदर्भ में वृत्तिकार का कथन है- ततो यात्रांसह ग्रामयात्रां गृहीतुमुद्यता वयमिति - यहां कोणिक राजा ने अपने दूत द्वारा : राजा चेटक के प्रति किए अभद्र व्यवहार का वर्णन नहीं किया ||७५ ||
मूल-तएणं कालाइया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमट्ठ विणणं पडिसुर्णेति ॥७६॥
छाया - ततः खलु कालादिकाः देश कुमाराः कूणिकस्य राज्ञः एतमर्थं विनयेन प्रतिशृण्वन्ति ॥ ७६ पदार्थान्वयः -- तएणं– तत्पश्चात्, एकलाइया दस कुमारा- कालादि दश कुमार, कूणिग्रस्स रह्यो– कोणिक राजा के इस अर्थ को अर्थात् आज्ञा को, विणएणं पडिसृणेन्ति-विनयपूर्वक सुन हैं, अर्थात् स्वीकार करते हैं ।। ७६ ।।
मूलार्थ - तत्पश्चात् वे काल आदि दस कुमार, राजा कौणिक की इस आज्ञा को विनयपूर्वक सुनते हैं अर्थात् स्वीकार करते हैं ॥७६॥
टीका - प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा अपने कालादि दस कुमारों को युद्ध की प्रेरणा देने का वर्णन है । राजा कोणिक की बात को सभी भाई विनय-पूर्वक सुनते हैं, अर्थात् मान लेते हैं, क्योंकि