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वर्ग-चतुर्थ ]
( २६३)
[निरयावलिशा
. छाया-ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् उपस्कारयति मित्रजाति यावदामन्त्रयति । ततः पश्चात् भोजनवेलायां यावत् पित्रज्ञाति० स करोति सम्मानयति, सुभद्रां सार्थवाही स्नातां यावत् कृतप्रायश्चित्तां सर्वालङ्कारविभूषितां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मित्रज्ञाति० यावत् सम्वन्धिसंपरिवता सर्वऋद्धया यावत रवेण वाराणसीनगयां मध्यध्येन यौव सुबताना आर्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां स्थापयति, सुभद्रा सार्थवाही शिविकातः प्रत्यवरोहति ।।९।।
पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से भद्दे सत्थवाहे-उस भद्र सार्थवाह ने, विउलं असणं ४चार प्रकार का अशन आदि विपुल भोजन, उवक्खडावेइ-तैयार करवाया, मित्तनाइ-मित्रों व रिश्तेदारों, जाव-यावत्, आमतेइ-आमन्त्रित किया, पच्छा भोयणवेलाए-फिर भोजन के पश्चात्, सक्कारेई सम्माणेइ-उनका सत्कार सन्मान किया, सुभद्द सत्थवाहि-तब सुभद्रा सार्थवाही को, व्हायं जाव पायच्छित्तं सब्बालंकारविभूसियं-स्नान करवाया प्रायश्चित् आदि करवाया (मंगल कार्य करवाये) फिर सब वस्त्र अलंकारों से विभूषित कर, पुरिससहस्सवाहिणि सोयं-हजारों पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका (पालकी) पर, दुल्हेइ-बिठाया, तओ-तब, सा सुभद्दा सत्थवाही-वह सुभद्रा सार्थवाही, मित्तनाइ-मित्रों व रिश्तेदारों से, जाव-यावत्, संबंधिसपरिबुडा-सम्बन्धियों.से घिरी हुई, सन्निड्ढीए-सर्व ऋद्धि से युक्त, जाना-यावत्, रवेणं-वेग पूर्वक, वाणारसीनयरीए-वाराणसी नगरी के, मज्झं मज्झेणं-बीचों बीच होती हुई, जेणेव-जहां, सुब्धयाणं अज्जाणं-सुव्रता आर्या थी, उवस्सए-उपाश्रय था, तेणेव उपागच्छदवहां आई और, उपागच्छित्ता-पाकर, पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ-हजारों पुरुषों द्वारा उठाई जाने के योग्य शिविका को नीचे रखवाया, पच्चोव्हेइ-और वह स्वयं नीचे उतर गई ।।६।।
- मूलार्थ-तत्पश्चात् उस भद्र सार्थवाह ने पिपुल अशन आदि चार प्रकार का भोजन तथार करवाया। फिर मित्रों व रिश्तेदारों को भोजन के लिए आमन्त्रित किया। भोजन कराने के पश्चात् सभी का सन्मान-सत्कार किया। फिर सुभद्रा सार्धवाही को स्नान करवाया गया। प्रायश्चित् आदि करवाया गया फिर उसे (सुभद्रा सार्थवाही को) वस्त्रों-अलंकारों व आभूषणों से सुसज्जित करके; हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य पालकी में बिठाया। तब वह सुभद्रा सार्थवाही मित्रों व रिश्तेदारों से घिरी, सर्व ऋद्धि से युक्त होकर वेगपूर्वक चलती हुई और वाराणसी नगरी के बीचों-बीच हे ती हुई जहां सुब्रता आर्या का उपाश्रय था वहां पहुंची और पहुंच कर हजारों पुरुषों द्वारा उठाई गई,पालकी को नीचे रखवाया और स्वयं उससे नीचे उतरी ॥६॥