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निरयावलिका
(२६२)
[वर्ग-चतुर्थ
मूलार्थ- तत्पश्चात् (सुभद्रा की बात को सुन कर) भद्र सार्थवाह इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिये ! इस समय तुम मण्डित यावत् साध्वी मत बनो. अपितु पहले की तरह मेरे साथ विपुल भोग उपभोग भोगो । फिर भुक्तभोगी होकर सूव्रता आर्या के समीप जाकर यावत् दीक्षित हो जाना । ऐसी बात सुनकर भद्रा सार्थवाही ने उन वचनों को अच्छा नहीं माना। भद्र सार्थवाह को दो तीन बार इस प्रकार कहा"हे देवानुप्रिय ! मैं आपकी आज्ञा से दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं। तत्पश्चात् जब सुभद्र सार्थवाह विशेष वचनों, प्रलोभनों, स्नेह वाक्यों से समझाने में असमर्थ रहा, तब इच्छा न होते हुए भी उसने सुभद्रा को दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान कर दी ॥८॥
टीका-प्रस्तुत सूत्र द्वारा भद्र सेठ के पत्नी के प्रति स्नेह का भी पता चलता है । तभी तो वह न चाहते हुए भी उसे दीक्षा की आज्ञा दे देता है। सुभद्रा सार्थवाही को दो-तीन बार ऐसा कहना पड़ता है । भद्र सेठ की उदासी उसके राग का प्रतीक है।
इस सूत्र से यह भी सिद्ध होता है कि वैरागी को उसके घर वाले या संरक्षक अनुकूल या प्रतिकूल वचनों से समझा बुझा तो सकते हैं, पर ऐसे कार्य में वैरागी आत्मा से मारपीट अच्छी नहीं होती। क्योंकि मारपीट से मन के विचारों पर कोई असर नहीं पड़ता। वैरागी का कर्तव्य है कि वह भी अपने माता, पिता, संरक्षकों और निकट सम्बन्धियों की आज्ञा लेकर साधु-जीवन ग्रहण करे, घर से पलायन न करे ।।८।।
मूल-तएणं से भद्दे सत्थवाहे विउलं असणं ४ उवक्खडांवेइ, मित्तनाइ जाव आमंतेइ, पच्छा भोयणवेलाए जाव मित्तनाइ० सक्कारेइ सम्माणेइ, सुभदं सत्यवाहि हायं जाव पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणि सोयं दुरूहेइ । तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तमाइ जाव संबंधिसंपरिवडा सविड्ढोए जाव रवेणं वाणारसीनयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अज्जाण उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सोयं ठवेइ, सुभदं सत्यवाहिं सोयाओ पच्चोरहेइ ॥६॥